1 of 2: किरन मोहित
अब सब क़ैदी चुप हो चले थे. उनकी निगाहें उनकी कोठरी से गुज़रने वाले रास्ते पर लगी हुई थी.
भगतसिंह और उनके साथी फाँसी पर लटकाए जाने के लिए उसी रास्ते से गुज़रने वाले थे.
एक बार पहले जब भगतसिंह उसी रास्ते से ले जाए जा रहे थे तो पंजाब कांग्रेस के नेता भीमसेन सच्चर ने आवाज़ ऊँची कर उनसे पूछा था, “आप और आपके साथियों ने लाहौर कॉन्सपिरेसी केस में अपना बचाव क्यों नहीं किया.” भगतसिंह का जवाब था, “इन्क़लाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है, अदालत में अपील से नहीं.”
वॉर्डेन चरतसिंह भगतसिंह के ख़ैरख़्वाह थे और अपनी तरफ़ से जो कुछ बन पड़ता था, उनके लिए करते थे. उनकी वज़ह से ही लाहौर की द्वारकादास लाइब्रेरी से भगतसिंह के लिए किताबें निकल कर जेल के अन्दर आ पाती थीं.
भगतसिंह को किताबें पढ़ने का इतना शौक़ था कि एक बार उन्होंने अपने स्कूल के साथी जयदेव कपूर को लिखा था कि वो उनके लिए कार्ल लीबनेख़ की ‘मिलिट्रिज़म’, लेनिन की ‘लेफ़्ट-विंग कम्युनिज़्म’ और अपटन सिनक्लेयर का उपन्यास ‘द स्पाई’ कुलबीर के ज़रिये भिजवा दें.
भगतसिंह जेल की कठिन ज़िन्दगी के आदी हो चले थे. उनकी कोठरी नंबर 14 का फ़र्श पक्का नहीं था. उस पर घास उगी हुई थी. कोठरी में बस इतनी ही जगह थी कि उनका पाँच फिट, दस इंच का शरीर बमुश्क़िल उसमें लेट पाये.
भगतसिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राणनाथ मेहता उनसे मिलने पहुंचे. मेहता ने बाद में लिखा कि भगतसिंह अपनी छोटी-सी कोठरी में पिंजड़े में बन्द शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे. उन्होंने मुस्करा कर मेहता को स्वागत किया, और पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाये या नहीं? जब मेहता ने उन्हें किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज़्यादा समय न बचा हो. मेहता ने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई सन्देश देना चाहेंगे? भगतसिंह ने किताब से अपना मुँह हटाये बग़ैर कहा, “सिर्फ़ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद!”
इसके बाद भगतसिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरु और सुभाष बोस को मेरा धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने मेरे केस में गहरी रुचि ली थी.
भगतसिंह से मिलने के बाद प्राणनाथ मेहता राजगुरु से मिलने उनकी कोठरी पहुँचे. राजगुरु के अन्तिम शब्द थे, “हम लोग जल्द मिलेंगे.” सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वो उनकी मौत के बाद जेलर से वो कैरम बोर्ड ले लें जो उन्होंने उन्हें कुछ महीने पहले दिया था.
जेल अधिकारियों ने तीनों क्रान्तिकारियों को बता दिया कि उनको वक़्त से 12 घंटे पहले ही फांसी दी जा रही है. अगले दिन सुबह छह बजे की बज़ाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया जायेगा. भगतसिंह मेहता द्वारा दी गयी किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाये थे. उनके मुँह से निकला, “क्या आप मुझे इस किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे?!”
भगतसिंह ने जेल के मुस्लिम सफ़ाई कर्मचारी बेबे से अनुरोध किया था कि वो उनके लिए उनको फांसी दिये जाने से एक दिन पहले शाम को अपने घर से खाना लाएँ.
लेकिन बेबे भगतसिंह की ये इच्छा पूरी नहीं कर सके, क्योंकि भगतसिंह को बारह घंटे पहले फांसी देने का फ़ैसला ले लिया गया और बेबे जेल के गेट के अन्दर ही नहीं घुस पाया.
थोड़ी देर बाद तीनों क्रान्तिकारियों को फांसी की तैयारी के लिए उनकी कोठरियों से बाहर निकाला गया. भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने हाथ जोड़े और अपना प्रिय आज़ादी गीत गाने लगे-
कभी वो दिन भी आयेगा
कि जब आज़ाद हम होंगें
ये अपनी ही ज़मीं होगी
ये अपना आसमाँ होगा!
फिर इन तीनों का एक-एक करके वज़न लिया गया. सब के वज़न बढ़ गये थे. इन सबसे कहा गया कि अपना आख़िरी स्नान करें. फिर उनको काले कपड़े पहनाये गए. लेकिन उनके चेहरे खुले रहने दिये गए. चरतसिंह ने भगतसिंह के कान में फुसफुसा कर कहा कि वाहे गुरु को याद करो. भगतसिंह बोले, “पूरी ज़िन्दगी मैंने ईश्वर को याद नहीं किया. असल में मैंने कई बार ग़रीबों के क्लेश के लिए ईश्वर को कोसा भी है. अगर मैं अब उनसे माफ़ी माँगूँ तो वो कहेंगे कि इससे बड़ा डरपोक कोई नहीं है. इसका अन्त नज़दीक आ रहा है. इसलिए ये माफ़ी माँगने आया है!”
जैसे ही जेल की घड़ी ने 6 बजाये, क़ैदियों ने दूर से आती कुछ पदचापें सुनीं. उनके साथ भारी बूटों के ज़मीन पर पड़ने की आवाज़ें भी आ रही थीं. साथ में एक गाने का भी दबा स्वर सुनायी दे रहा था, “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…!” सभी को अचानक ज़ोर-ज़ोर से ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ और ‘हिन्दुस्तान आज़ाद हो’ के नारे सुनायी देने लगे.
फांसी का तख़्ता पुराना था लेकिन फांसी देनेवाला काफ़ी तन्दुरुस्त. फांसी देने के लिए मसीह जल्लाद को लाहौर के पास शाहदरा से बुलवाया गया था.
भगतसिंह इन तीनों के बीच में खड़े थे. भगतसिंह अपनी माँ को दिया गया वो वचन पूरा करना चाहते थे कि वो फाँसी के तख़्ते से ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ का नारा लगायेंगे.
लाहौर ज़िला कांग्रेस के सचिव पिंडीदास सोंधी का घर लाहौर सेन्ट्रल जेल से बिल्कुल लगा हुआ था. भगतसिंह ने इतनी ज़ोर से ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा लगाया कि उनकी आवाज़ सोंधी के घर तक सुनायी दी.
भगतसिंह की आवाज़ सुनते ही जेल के दूसरे क़ैदी भी नारे लगाने लगे.
भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव – तीनों युवा क्रांतिकारियों के गले में फांसी की रस्सी डाल दी गयी. उनके हाथ और पैर बाँध दिये गए. तभी जल्लाद ने पूछा, सबसे पहले कौन जायगा? सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर लटकने की हामी भरी. जल्लाद ने एक-एक कर रस्सी खींची, और उनके पैरों के नीचे लगे तख़्तों को पैर मार कर हटा दिया.
काफी देर तक शव तख़्तों से लटकते रहे.
अंत में शवों को नीचे उतारा गया, और वहाँ मौज़ूद डॉक्टरों – लेफ़्टिनेंट-कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ़्टिनेंट-कर्नल एनएस सोधी – ने उन्हें – तीनों क्रान्तिकारियों को – मृत घोषित किया.
एक जेल अधिकारी पर इस फांसी का इतना असर हुआ कि जब उससे कहा गया कि वो मृतकों की पहचान करें तो उसने ऐसा करने से इनक़ार कर दिया. भावुकता दिखानेवाले – और नाफ़र्मानी करनेवाले – उन अधिकारी के साथ रिआयत नहीं बरती गयी, और उसी जगह पर उनको निलंबित कर दिया गया.
एक जूनियर अफ़सर ने फिर ये काम अंजाम दिया.
पहले योजना थी कि इन सबका अन्तिम संस्कार जेल के अन्दर ही किया जायेगा, लेकिन फिर ये विचार त्यागना पड़ा जब अधिकारियों को आभास हुआ कि जेल से धुआँ उठते देख बाहर खड़ी भीड़ जेल पर हमला कर सकती है.
आनन-फानन में जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई.
उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अन्दर लाया गया. बहुत अपमानजनक तरीक़े से क्रान्तिकारियों के शवों को एक सामान की तरह ट्रक में डाल दिया गया.
पहले तय हुआ था कि उनका अन्तिम संस्कार रावी के तट पर किया जायेगा, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलुज के किनारे शवों को जलाने का फ़ैसला लिया गया. शहीदों के पार्थिव शरीर को फ़ीरोज़पुर के पास सतलुज के किनारे लाया गया. तब तक रात के 10 बज चुके थे. इस बीच उप पुलिस अधीक्षक कसूर सुदर्शनसिंह कसूर गाँव से एक पुजारी जगदीश अचरज को बुला लाये.
अभी शवों में आग लगायी ही गई थी कि लोगों को इसके बारे में पता चल गया. जैसे ही ब्रितानी सैनिकों ने लोगों को अपनी तरफ़ आते देखा, वो शवों को वहीं छोड़ कर अपने वाहनों की तरफ़ भागे. सारी रात गाँव के लोगों ने शवों के चारों ओर पहरा दिया.
अगले दिन दोपहर के आसपास ज़िला मजिस्ट्रेट के दस्तख़त के साथ लाहौर के कई इलाक़ों में नोटिस चिपकाये गए जिसमें बताया गया कि भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु का सतलुज के किनारे हिन्दू और सिख रीति से अन्तिम संस्कार कर दिया गया.
इस ख़बर पर लोगों की कड़ी प्रतिक्रिया आई और लोगों ने कहा कि इनका अन्तिम संस्कार करना तो दूर, उन्हें पूरी तरह जलाया भी नहीं गया. ज़िला मैजिस्ट्रेट ने इसका खंडन किया लेकिन किसी ने उस पर विश्वास नहीं किया.
भगतसिंह और उनके दोनों साथियों के सम्मान में लोग जुलूस में चलने लगे। शोक जुलूस नीला गुंबद से शुरु हुआ. देखते-देखते वह तीन मील लम्बा हो गया था।
पुरुषों ने विरोधस्वरूप अपनी बाहों पर काली पट्टियाँ बांध रखी थीं। महिलाओं ने काली साड़ियाँ पहन रखी थीं. लगभग सब लोगों के हाथ में काले झंडे थे. लाहौर के मॉल से गुज़रता हुआ जुलूस अनारकली बाज़ार के बीचोबीच रुका.
अचानक पूरी भीड़ में उस समय सन्नाटा छा गया जब घोषणा की गयी कि भगतसिंह का परिवार तीनों शहीदों के बचे हुए अवशेषों के साथ फ़ीरोज़पुर से वहाँ पहुँच गया है.
जैसे ही तीन फूलों से ढ़के ताबूतों में उनके शव वहाँ पहुंचे, भीड़ भावुक हो गयी. लोग अपने आँसू नहीं रोक पाये.
वहीं पर एक मशहूर अख़बार के सम्पादक मौलाना ज़फ़र अली ने एक नज़्म पढ़ी जिसका लब्बोलुआब था, ‘किस तरह इन शहीदों के अधजले शवों को ख़ुले आसमान के नीचे ज़मीन पर छोड़ दिया गया.’
उधर, जेल वॉर्डेन चरतसिंह सुस्त क़दमों से अपने कमरे में पहुँचे और फूट-फूट कर रोने लगे. अपने 30 साल के कॅरियर में उन्होंने सैंकड़ों फांसियाँ देखी थीं। उनकी याद में किसी ने मौत को इतनी बहादुरी से गले नहीं लगाया था जितना भगतसिंह और उनके दो कॉमरेडों ने.
किसी को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि 16 साल बाद उनकी शहादत भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अन्त का एक कारण साबित होगी और भारत की ज़मीन से सभी ब्रिटिश सैनिक हमेशा के लिए चले जायेंगे.
इंक़लाब के हौसलो को दुःखों तकलीफों दर्दो से तपाने वालें शहीद ए आज़म ने घर के माहौल से ही वतनपरस्ती इंसानियत अपनो के लिए अपनेपन का एहसास किया था।
शहीद ए आज़म के जन्म के बाद दोनों क्रांतिकारी चाचा सरदार स्वर्ण सिंह संधू तो घर आ गए इनको टीवी की बीमारी के कारण छोड़ा गया था जो घर मे आने के बाद कम उम्र में चल बसे ,सरदार अजीत सिंह संधू जिनके किस्से सुनकर शहीद ए आज़म खुद को गौरवान्वित महसूस करते थे वो रंगून(म्यामांर)जेल से ईरान,तुर्की होते हुए जर्मनी चले गए थे,वो जर्मन रेडियो से ब्रिटेन के विरुद्ध प्रचार करते थे,जो 45 वर्ष देश से दूर रहे ।
घर पर शहीद ए आज़म ने निःसन्तान चाची हुकुमकौर की सिसकियां सुनी पूरे बचपन,जो सरदार स्वर्ण सिंह की विधवा थी ,चाची हरनाम कौर रोज सरदार अजीत सिंह की खबर के लिए उनके घर वापसी के लिए तरसती थी,उनके दुःखों में नन्हा भगत उनकी गोद मे बैठकर उनको संभालने का प्रयास करता था।
नन्हा भगत अपनी चाचियों के आंसू पूछता ओर कहता आप रोना बन्द करके मेरे बड़ा होंने की दुआ करो,में बदला लूंगा अपनी चाचियों के दुखों का, भगत की बात सुनकर उसकी चाची उसको गले लगाकर आंसुओ से आंखे भर लेती थी।
बचपन से ही भगत ने अंग्रेजो के खिलाफ अपने दिल को इतना ठोस कर लिया था कि इनके आगे नही झुकना है इनको झुकाना है,भगत की जिंदगी से जुड़े तमाम किस्से बताते है कि कैसे उसकी बेखौफ शहीदी की इबारत उसके हर पल के इंक़लाब से बनी थी ।
शहीद ए आज़म के आदर्श रहे सरदार करतार सिंह सराभा (ग्रेवाल) जो ग़दर पार्टी के अध्यक्ष थे जिन्हें 1915 में अंग्रेजो ने लाहौर षड्यंत्र केस में गिरफ्तार किया और 1916 में उनको 19 वर्ष कुछ माह की उम्र में फांसी लगा दी , शहीद ए आज़म सराभा की एक फोटो हमेशा अपने साथ रखते थे,
1919 में रॉलेक्ट एक्ट के विरुद्ध जलियांवाला बाग में बैशाखी वालें दिन भारतीयों के जत्थे इकट्ठा थे जिन निहत्थों पर जनरल ओ डायर ने बारूदों गोलियों से कत्लेआम कर दिया, बताते है बाग से खून से सनी मिट्टी उठाकर न जाने पंजाब की धरती के कितने सूरमे बागी बने।
शहीद ए आज़म कभी भी अंग्रेजो के विरुद्ध हिंसात्मक होने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि गोली से आज़ादी नही भारतीय परिवारों की बर्बादी होगी ,उन्होंने वैचारिक क्रांति के बारे में खुद को मजबूत किया,असेम्बली में खाली जगह बम विस्फोट करके खुद को पकड़वाया ओर अपनी आवाज विदेशो तक पहुचाई, जिस से भारत के लिए विदेशो में एक दयनीय भावना उत्पन्न हुई,ओर उन्होंने ब्रिटिश सरकार पर दबाब देना शुरू किया ।
शहीद ए आज़म ने जेल में रहकर वैचारिक लेख लिखे लोगो को जागरूक करने के लिए ईश्वर ,धर्म,साम्राज्यवाद के विरुद्ध समझाने का प्रयास किया। 1931 मे रूस का सोवियत सघं और सटालिन अपने चरम उतकषॆ पर थे। कमयुनिजम, Marx, Lenin, Stalin भगत सिहं आदि के साम्राजवाद के खिलाफ लडाई मे आदषॆ थे। यह तो सोवियत सघं के पतन के बाद ही पता चला कि उनकी विचारधारा से बेहतर तो बुद्ध आदि की आधयातमिक विचारधारा ही है।
अंतिम समय मे शहीदी से एक दिन पहले माँ विद्यावती से मुलाकात के वक़्त शहीद ए आज़म के भावुक अल्फाजो ने माँ ओर नजदीक खड़े दरबानों की आंखों में आँसू झलका दिये ।
“माँ कल मेरी मिट्टी लेने तू मत आना कुलवीर को भेज देना तू रो देगी,तो सब कहेंगे भगत की माँ रो रही है ,”
सुखदेव ,राजगुरु कभी भी अंग्रेजो की प्रताड़ना से न खुद कमजोर पड़े ,न भगत के हौसलो को मुरझाने दिया,देश की फिजाओं में शहीद ए आज़म,सुखदेव,राजगुरु सांस की तरह घुल गए थे,हर आती जाती सांसों के साथ इनका जिक्र होता था।
2 of 2: अछे दिन कब आयेगें?
ये मेसेज 2019 तक संभलकर रखना और पूरा पढ़ना फिर विचार करना
दिवार पर पेशाब करता व्यक्ति पूछता है ,अच्छे दिन कब आयेंगे !
बिजली चोरी करता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे
यहाँ-वहाँ कचरा फैंकता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे
कामचोर सरकारी कर्मचारी पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे
टेक्स चोरी करता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे
देश से गद्दारी करता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे
नोकरी पर देरी से व जल्दी घर दौड़ता कर्मचारी पूछता है, अच्छे_ दिन कब आयेंगे
लड़कियों से छेड़खानी करता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे
राष्ट्रगान के समय बातें करते स्कूलों के कुछ लोग पूछते है, अच्छे दिन कब आयेंगे
स्कूल में बच्चों को न भेजने वाले लोग पूछते हैं, अच्छे दिन कब आयेंगे
कसाई जैसे कमीशनखोर डाक्टर पूछता है अच्छे दिन कब आयेंगे
सड़क पर रेड सिगनल तोड़ते लोग पूछते, अच्छे दिन कब आयेंगे
किताबों से दूर भागते विद्यार्थी पूछते हैं, अच्छे दिन कब आयेंगे
कारखानों में हराम खोरी करते लोग पूछते हैं, अच्छे दिन कब आयेंगे
यदि खुद नहीं बदल सकते
तो अच्छे दिनों की आस छोड़ दो।
क्योंकि देश आपके उपदेश से नहीं,
आचरण से बदलेगा,
तब आएंगे अच्छे दिन !
कांग्रेस देश पर 55 लाख 87 हजार 149 करोड़ का
कर्ज छोड़ के गई है !
जिसका 1 वर्ष का ब्याज भरना पड़ रहा है = 4 लाख
27 हजार करोड़ !
यानि 1 महीने का = 35 हजार 584 करोड़ !
यानि 1 दिन का = 1 हज़ार 186 करोड़ !
यानि 1 घंटे का = 49 करोड़ !
यानि 1 मिनट का 81 लाख !
यानि 1 सेकेंड का 1,35,000!
जरा सोचिए ! जब देश लूटेरी कांग्रेस की मेहरबानी से
प्रति सेकेंड 1 लाख 35 हजार रूपये का तो सिर्फ पुराने
कर्जे का ब्याज भर रहा है तो देश के अच्छे दिन
आसानी से कैसे आएंगे..???
अत: जितना सम्भव हो भारतीय प्रोडक्ट ही ख़रीदे,
देश को लूटने से बचाये, अर्थव्यस्था की मजबूती में
अपना अमूल्य योगदान देकर भारतवर्ष को फिर से
समृद्ध बनाये…!
यदि भारत के 121 करोड़ लोगों में से सिर्फ 10% लोग प्रतिदिन 10 रुपये का रस पियें तो महीने भर में होता है लगभग ” 3600 करोड़ “…!!!!
अगर आप…कोका कोला या पेप्सी पीते हैं तो ये ” 3600 करोड़ ” रुपये देश के बाहर चले जायेँगे…।
कोका कोला, पेप्सी जैसी कंपनियाँ प्रतिदिन ” 7000 करोड़ ” से ज्यादा लूट लेती हैं..।
आपसे अनुरोध है क आप… गन्ने का जूस/ नारियल पानी/ आम/ फलों के रस आदि को अपनायें और देश का ” 7000 करोड़ ” रूपये बचाकर हमारे किसानों को दें…। ” किसान आत्महत्या नहीं करेंगे..”
फलों के रस के धंधे से ” 1 करोड़ ” लोगो को रोजगार मिलेगा और 10 रूपये के रस का गिलास 5 रूपये में ही मिलेगा…।
स्वदेशी अपनाओ, राष्ट्र को शक्तिशाली बनाओ..।
.
स्वदेशी अपनाए देश बचाएे अगर सभी भारतीय 90
दिन तक कोई भी विदेशी सामान नहीं ख़रीदे…
तो भारत दुनिया का दूसरा सबसे अमीर देश बन सकता है.. सिर्फ 90 दिन में ही भारत के 2 रुपये 1 डॉलर के बराबर हो जायेंगे.. हम सबको मिल कर ये कोशिश आजमानी चाहिए क्युकी ये देश है हमारा..!!!!