१८५१ ई० की घटना है। हिमालय के रानीखेत इलाके में एक सैन्य निवास के निर्माण का आयोजन चल रहा है । सामरिक ईंजीनियरिंग विभाग के एक तरुण बंगाली कर्मचारी दानापुर से स्थानांतरित होकर इस कार्य के लिए यहाँ आये हैं । उन्हें जो कुछ काम करना होता है उसे तंबू में बैठकर प्रातःकाल ही पूरा कर लेते हैं। इसके बाद सारा दिन अवकाश रहता है। अवकाश का समय निम्न कर्मचारियों और पहाड़ी कुलियों के साथ गप-शप में बीत जाता है। सामने में है पर्वतराज हिमालय ।
इसकी गुहाओं में न मालूम कितने योगी और साधु-संन्यासी तपस्या में रत रहते हैं । जन्म- जन्मांतर के पुण्य-फल से ही किसी-किसी भाग्यवान को इनके दर्शन होते हैं, देवात्मा हिमालय का स्वरूप उनके माध्यम से प्रकट होता है। इंजीनियरिंग विभाग के इस कर्मचारी ने स्थानीय लोगों के मुंह से कितनी ही अलौकिक कहानियाँ, कितनी ही किम्वदंतियां सुन रखी हैं और उन्होंने यह भी सुन रखा है कि समीपस्थ यह द्रोणगिरि तपस्वियों की विचरण-भूमि है । इसलिए स्वभावतः उनके मन में कोतूहल उत्पन्न हुआ और एक दिन वे पहाड़ को अच्छी तरह देख आने के लिए निकल पड़े।
रानीखेत से द्रोणगिरि की दूरी लगभग पंद्रह मील है। देवदारू और चीड़ के वृक्षों से समस्त मार्ग आच्छन्न है । दुर्गम पर्वंत-श्रेणी को पार करना पड़ता है। टेढी-मेढी पगड॑डी होकर वन में चलते-चलते संध्या हो आयी थी । सामने नंदा देवी के पर्वत-शिखर पर अस्ताचल – गामी सूर्यं की लालिमा धीरे-धीरे अंधकार में विलीन होती जा रही थी । दूर क्षितिज में चिरतुषारमंडित पर्वत-शिखर की तरंग- माला उस वर्णच्छटा से उद्भाषित हो रही थी । वह ऐसा लग रहा था मानो देवाधिदेव महादेव के ताम्रवर्ण जटा-जाल में दिगन्त ढक गया हो । आत्मविस्मृत बनकर तरुण कर्मचारी इस महिमामय दृश्य को अपलक दृष्टि से देख रहे हैं । अकस्मात् निर्जन पहाड़ी प्रदेश को कम्पित करती हुई ध्वनि हुई: “श्यामाचरण ! श्यामाचरण लाहिड़ी !” इस जनशून्य पहाड़ी इलाके में कौन उनका नाम लेकर पुकार रहा है ? श्यामाचरण को सरकारी तार मिला और वे एकाएक दानापुर से पाँच सो मील दूर रानीखेत चले आये हैं। इस इलाके के किसी भी व्यक्ति से वे परिचित नहीं हैं । उनके मन में किंचित् भय हुआ साथ ही कौतूहल भी। जिधर से आवाज आई थी उसी ओर कुछ दूर आगे चलकर उन्होंने देखा कि पहाड़ की एक गुहा के द्वार पर तेजोदीप्तकलेवर जटाजूट्धारी एक योगी खड़े हैं । ऐसा लगा कि वे श्यामाचरण की ही प्रतीक्षा में थे। उनकी सस्नेह दृष्टि से मानो अमृत धारा बरस रही थी। प्रसन्न मधुर कंठ से कहने लगे – “श्यामाचरण, अब तुम आ गये । बैठ जाओ, विश्राम कर लो। मैं ही तुमको पुकार रहा था ।”
शंका एवं सन्देह मन में धारण किये हुए श्यामाचरण योगी को प्रणाम करके एक बगल में खड़े हो गये । संन्यासी ने तो आग्रह् के साथ उन्हें बुलाया था, किन्तु श्यामाचरण इस समय भी संशय में पड़े हुए थे। वे मन-ही-मन सोच रहे थे, साधु को मेरा नाम किस तरह मालूम हुआ! हो सकता है कि किसी चपरासी या पहरेदार से मालूम कर लिया है । किन्तु और भी अधिक आश्चर्यं तो तब हुआ जब कि मन में यह ख्याल उठते ही योगी ने श्यामाचरण के पिता-पितामह का नाम, धाम, परिचय सब कुछ बता दिया । केवल इतना ही नहीं, घनिष्ठ चिर-परिचित की तरह उनकी ओर देखते हुए वे मधुर मंद मुस्करा रहे थे।
योगी कहने लगे, “बेटा, तुम व्यर्थ अपने मन में संदेह कर रहे हो । मैं तुम्हारा अपना आदमी हूँ । तुम्हारी ही प्रतीक्षा में इस दुर्गम गिरि शिखर पर अब तक बैठा था। एक बार अच्छी तरह विचार कर तो देखो कि तुम इस ओर कभी इस पहाड़ पर आये थे या नहीं।” विस्मय-विमूढ़ श्यामाचरण को वे उस गुहा के अभ्यंतर में ले गये । उसके एक कोने में एक संन्यासी के व्याघ्रचर्म, धुनी, दंड, कमण्डल आदि परित्यक्त अवस्था में पड़े हुए थे। रहस्यमय योगी ने श्यामाचरण से पूछा, “देखो तो, इन सब चीजों को तुम पहचानते हो या नहीं? ये सब तुम्हारे ही द्वारा परित्यक्त वस्तुएँ हैं, क्या इनमें एक का भी स्मरण नहीं हो आता ?” बार-बार स्मृति-मन्थन करने पर भी श्यामाचरण कुछ समझ नहीं सके । मन में कोई धारणा ही नहीं हो रही है । मुस्कराते हुए आगे बढ़ कर योगी ने श्यामाचरण की पीठ पर हाथ रखकर मेरुदंड को स्पर्श किया । यह कौन सा इन्द्रजाल था ! क्षण भर मे ही श्यामाचरण के मन पर पड़ा हुआ पर्दा मानो हट गया । उनका सम्पूर्ण शरीर बार-बार इस तरह काँपने लगा जैसे बिजली का तार छू गया हो : पूर्व जन्म के अध्यात्म जीवन का चित्र-पट श्यामाचरण के नेत्र के सामने सहसा उद्घाटित हो उठा । जन्म-जन्मांतर का व्यवधान शक्ति-धर योगी के पुण्य कर-स्पर्श से क्षण में ही दूर हो गया । उन्हें बोध हुआ – यह दण्ड, कमण्डलु, व्याघ्रचर्म और पवित्र धूनी सब कुछ उन्हीं के पूर्वं जन्म की व्यवहृत वस्तुएं हैँ । सामने जो योगी खड़े हैं वे ही उनके पूर्व जन्म के गुरु हैं ये ही उनके इहलोक-परलोक के पराश्रय हैं । साष्टांग प्रणाम करके श्यामाचरण हाथ जोड़े हुए खड़े रहे ।
योगी ने मुस्कराते हुए कहा -“ये सब वस्तुएं पूर्व जन्म की व्यवह्रत है। उस समय तुम मेरे शिष्य थे । जिस समय तुम साधना के उच्च मार्ग पर अवस्थित थे तुम्हारा शरीरांत हो गया। इस जन्म में ईश्वर-निदिष्ट कार्य सम्पादन करने के लिए ही तुम्हें पुनः जन्म ग्रहण करना पड़ा है । तुम्हारी साधन-सम्पदा को एक धरोहर वस्तु के रूप में ही रक्षा करते हुए मैं अब तक तुम्हारी अपेक्षा कर रहा था । तुम्हें दीक्षा देने के लिए ही मेरा यहाँ आगमन हुआ हे ।”
श्यामाचरण को योगी से और भी बहुत सी बातें मालूम हुई । सब कुछ सुनकर वे आश्चर्य – चकित हो गये । योगी ने कहा -“तुम्हें दानापुर से यहाँ आने के लिए जो तार भेजा गया था, वह ऊपर वाले अफसर की भूल के कारण ही था। एक स्थान के नाम पर उसने दूसरे स्थान का उल्लेख कर दिया था। मैंने ही उससे यह भूल करा दी थी । जान रखो, फिर सात दिनों के बाद तुम्हें आदेश मिलेगा – तुम्हें दानापुर लौट जाना होगा। इतने दिनों में मेरा काम भी पूरा हो जायेगा ।”
एक साधारण संसारी जीव श्यामाचरण के जीवन में यह कितना बड़ा आश्चर्य था ! यह अलौकिक योग-विभूति-सम्पन्न महापुरुष उनका गुरु किस प्रकार हो सकते हैं ? और उन्हीं की प्रतीक्षा में अब तक वे दिन गिन रहे थे । अस्त-राग-रंजित द्रोणगिरि के मध्य इस गुहाद्वार के सामने खड़े रहकर उन्होंने अपने मन में विचार किया, जन्म-जन्मांतर के इस गुरु की अपेक्षा घनिष्ठतर परम आत्मीय जन उनका और कोई नहीं हैं। आत्मीय, बन्धु-बान्धव, घर-गृहस्थी सब कुछ की मोह-ममता उनके अंदर से मानो मिट गयी। कातर कंठ से रोते हुए उन्होंने कहा, “बाबा, अब मुझे फिर संसार में लौट जाने के लिए नहीं कहिये। मैं आपकी चरण-सेवा में रह कर जीवन बिता देना चाहता हूं । जिस संपद को मैं खो चुका था उसे फिर से प्राप्त करने के सिवा मेरे जीवन में और कोई महत्तर कामना नहीं हैं।”
योगी ने उनके संसार-त्याग के अनुरोध को किसी प्रकार भी स्वीकार नहीं किया। श्यामाचरण को समझा कर बोले, जिस ईश्वरीय विधान के अनुसार उन्हें खोयी हुइ अध्यात्म-संपद पुनः प्राप्त हो रही है उसके निर्देशानुसार उन्हें संसार मे रहकर कर्म करना होगा । योग- साधन के प्रचार के लिए वे एक बिशिष्ट आचार्य हैं । परम गोपनीय इस योग-साधन को उन्हें उपग्रुक्त पात्रों के बीच वितरण करने का दायित्व ग्रहण करना होगा । योगी ने और भी जता दिया, “श्यामाचरण, याद रखो आफिस तुम्हारे लिए ही आज रानीखेत आया है, तुम आफिस के लिए यहाँ नहीं आये हो । ईश्वर-निदिष्ट कार्य के लिए तुम्हारा यहाँ आगमन हुआ है । इस लिए जब तक तुम यहाँ रहो, नित्य मुझसे मिलते रहना ।”
श्यामाचरण के जीवन में उस दिन एक नया पट-परिवत्तेन हुआ । अवश्य ही यह एक नाटकीय एवं चमत्कारपूर्ण घटना थी। नदिया जिले के एक अख्यात गाँव में उनका जन्म हुआ था। जीवन के टेढ़े- मेढे रास्ते पर अब तक वे साधारण मनुष्यों की तरह ही आगे बढ़ते आ रहे थे। इसके बाद कार्यवश रानीखेत आये और वहाँ उन्हें महा- योगी का आश्रय प्राप्त हुआ । यह अप्रत्याशित कृपा उनके जीवन में एक नूतन सौभाग्योदय की सूचक थी। श्यामाचरण के पिता गोरमोहन लाहिडी ने कृष्णनगर के समीपस्थ घूर्णी ग्राम के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण-वंश में जन्म ग्रहण किया था। गौरमोहन धर्मनिष्ठ एवं योगमार्गी साधक थे। अपने गाँव में उन्होंने धूमधाम के साथ एक शिव मंदिर की स्थापना की थी। काल- क्रम से उनका यह मंदिर नदी-गर्भ में विलीन हो गया। बाद में शिव के आदेश से विग्रह का नदी-गर्भ से उद्धार किया गया और एक नया मंदिर निमित हुआ। आज भी वह स्थान घूर्णी में शिवतला नाम से प्रसिद्ध है। शिव-आराधना में गोरमोहन की पत्नी मुक्तकेशी देवी का अत्यंत अनुराग था ।
इस धर्मनिष्ठ दम्पति के गृह को ही आलोकित करते हुए श्यामाचरण ने १८२५ ई० में जन्म ग्रहण किया था। बचपन में ही इनकी माता का देहांत हो गया, जिससे पिता बालक को साथ लेकर काशी चले आये और वहीं स्थायी रूप से रहने लग गये । निष्ठावान ब्राह्मण- वंश की संस्कृत-धारा श्यामाचरण के जीवन में प्रवाहित थी । पुण्य क्षेत्र काशी में वास करने के फलस्वरूप उसे और भी विकसित होने का सुयोग मिला। असंख्य मंदिर एवं साधन-भजन का परिवेश, साधु महात्माओं का सान्निध्य इन सब के कारण बालक की धर्म संस्कृति की चेतना को सहज ही जाग्रत होने का अवसर मिला । पिता गौरमोहन शास्त्र पाठ एवं धर्म-साधना में विश्वासी थे। निष्ठा के साथ वे प्रति दिन ऋग वेद का पाठ किया करते थे।
काशी में उस समय नागभट्ट नामक एक वेदज्न महाराष्ट्री ब्राह्मण की बड़ी प्रतिष्ठा थी । इन्हीं के शिक्षकत्व में श्यामाचरण ने कुछ समय तक वेद-पाठ का अभ्यास किया । गौरमोहन यद्यपि प्राचीन भारतीय संस्कृति के समर्थक थे तथापि अपने पुत्र की शिक्षा-व्यवस्या में उन्होंने आधुनिकता को भी स्थान दिया। श्यामाचरण को हिन्दी और उर्दू की शिक्षा दो गयी । स्कूल और संस्कृत कालेज में शिक्षा प्राप्त करके संस्कृत, फारसी और अंगरेजी भाषाओं पर उनका अच्छा अधिकार हो गया था। अपने सहपाठियों के बीच एक मेधावी नवयुवक के रूप में उनकी विशेष प्रतिष्ठा थी । अठारह वर्षं की अवस्था में उनका विवाह हो गया । नववधू काशीमणि उस समय आठ वर्ष की थी। पंडित-वंश की यह कन्या अपने सुदीर्घ दाम्पत्य जीवन में पति की प्रकृत सहर्धिमणी बनी रही । परवर्ती जीवन में योगाचार्य के रूप में श्यामाचरण की जो ख्याति हुई उसमें काशीमणि देवी ने भी कम सहायता नहीं पहुँचायी थी ।
लगभग २३ वषं की अवस्था में सरकारी इंजीनियरिंग कार्यालय में एक कमचारी के रूप में श्यामाचरण का कर्म-जीवन आरम्भ हुआ। इसके दो वर्षं के बाद उनके पिता का स्वर्गवास हो गया । अब गृहस्थी का सारा भार उनके ऊपर आ पड़ा। बाद में चल कर जब उनका योगी-जीवन आरम्भ हुआ उस समय भी उन्हें इसी प्रकार का दायित्व ग्रहण करते देखा गया। ये योग विभूति-संपन्न महापुरुष परम निलिप्तता के साथ गृस्थाश्रम के समस्त दायित्वों का पालन करते रहे। कर्मं कोलाहलमय जगत् के हर्ष -विषाद के बीच भी योगी जीवन की प्रशांति को सहज भाव से धारण करते रहने में उन्हें कोई बाधा नहीं हुई । इंजीनियरिंग विभाग में उत्तर भारत के विभिन्न स्थानों में कार्य करते हुए श्यामाचरण की बदली दानापुर हुई। उस समय उनकी अवस्था तेतीस वर्षं की थी। इसी समय उन्हें सरकारी काम से रानीखेत आना पड़ा जहाँ उनके जीवन में अध्यात्म का रस-स्रोत उन्मुक्त होकर प्रवाहित होने लगा ।
भगवत्कृपा का अमृत-घट लेकर उनके पूर्वजन्म के गुरुदेव उनके सम्मुख आकस्मिक रूप में आविभूत हुए । लाहिड़ी महाशय अपने योगी गुरुजी को बाबाजी कहा करते थे । अपरिमेय साधन-शक्ति एवं योग-विभूति के अधिकारी रूप में इन जीवन्मुक्त महापुरुष की ख्याति थी। कुछ साधकगण इन्हें ‘तौम्बक बाबा’ कुछ “शिव बाबा” कहकर सम्बोधन किया करते थे। इन महायोगी को लेकर हिमालय अंचल और समग्र उत्तर भारत में बहुत-सी अलौकिक कहानियाँ प्रचलित थीं। कहते हैं कि कई सौ वर्ष को वयस हो जाने पर भी वे चिरयुवा जैसे प्रतीत होते थे। एक योगेश्वर महापुरुष के रूप में साधक-समाज में उनकी असाधारण प्रतिष्ठा थी । लाहिड़ी महाशय को जो गुरु कृपा प्राप्त हुई थी उसके पीछे उनके पूर्व-जन्म का संचित फल ही वर्तमान नहीं था, इस जीवन की वंशा- नुक्रमिक धारा भी काम कर रही थी, जिससे उच्चतर योग-साधना का बीज अंकुरित हो उठा। उनकी इस निगूढ़ साधन धारा को उद्बुद्ध करके ही उनके गुरू ने उनसे कहा था-“श्यामाचरण यही तो तुम्हारी अपनी चीज है ।”
प्रथम साक्षात् के दूसरे ही दिन लाहिड़ी महाशय ने गुरुदेव के पहाड़ के निकट डेरा डाला । आफिस का जो थोड़ा-बहुत काम होता उसे यहाँ से ही निबटाकर वे प्रतिदिन योगी की गुहा में उपस्थित होते। सारा दिन गुरु द्वारा निदिष्ट आहार करते । दीक्षादान का दिन निश्चित हुआ। इससे एक दिन पहले लाहिड़ी महाशय ने देखा क्रि गुहा के एक कोने में एक मिट्टी के बर्तन में कोई वस्तु ढाँक कर रखी हुई है। गुरु ने लाहिड़ी महाशय को उसे ग्रहण करने के लिए कहा। बर्तन को जब खोलकर देखा गया तो उसमे तेल जैसी कोई चीज भरी हुई थी। लाहिड़ी महाशय ने सोचा, हो सकता है कि खाने की चीज के बदले भूल से इसमें तेल रख दिया गया हो। उसे ग्रहण करने में उन्हें आगा-पीछा करते देख कर बाबाजी ने आदेश दिया, “क्या देखते हो, सब ही पी डालो।” इसके बाद लाहिड़ी महशय ने बिना किती हिंचकिचाहट के सारा का सारा पी डाला । इसके बाद उन्हें आदेश हुआ कि वे पास को गगास नदी की रेत पर लेटे रहें। उन्होंने यथावत् आदेश का पालन किया । लगातार कै-दस्त होने के कारण लाहिडी महाशय अत्यंत शक्ति हीन हो गये । कंकड़ और बालू से भरे हुए नदी तट पर एकांत सोये रहने में भी सुविधा नहीं थी । पहाड़ी नदी में एकाएक बाढ़ आ गई और उन्हें बहा कर कुछ दूर ले गई। नदी की प्रखर धारा के विरूद्ध लगातार जूझते रहने से उस दिन उनकी अवस्था मरणासन्न जैसी हो गयी थी । दूसरे दिन प्रभात में बाबाजी के दर्शन हुए । उन्होंने बड़े उत्साह से लाहिडी महाशय को पुकारते हुए कहा, ”श्यामाचरण, बहुत अच्छा हुआ, पेट में जो कुछ मल पदार्थ था सब दूर हो गया ।” फिर उन्हें अधिक मात्रा में पूरी-हलुआ भोजन कराया गया । भोजन कर लेने पर बाबाजी महाराज ने उन्हें सूचित किया, “श्यामाचरण, आज संध्या में पवित्र एवं शुभ क्षण है। आज ही मै तुम्हें दीक्षा दूंगा ।”
यथा समय दीक्षा दान संपन्न हुआ। एक ओर उपयुक्त अधिकारी शिष्य, दूसरी ओर कृपा की वर्षा करनेवाले शक्तिधर सद्गुरू – दोनों का मणिकांचन संयोग। लाहिड़ी महाशय ने आश्चर्यजनक शीघ्रता के साथ योग-साधना की पद्धतियों को आयत्त कर लिया । गुरु की शक्ति से उद्दीपित साधक अतींद्रिय जगत् की अनेक दुर्लभ अनुभूतियों का आस्वादन करन में सक्षम हो गये । बाबाजी महाराज ने एक दिन शिष्य का स्नेह आलिंगन करते हुए कहा, “श्यामाचरण, तुम्हें और कुछ समय संसारी बनकर रहना होगा । मानव-कल्याण के लिए योग-साधना का प्रचार आवश्यक है । एक विशिष्ट आचार्य के रूप में, इस कार्य में, तुम्हारी महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी । अब तुम्हें रानी खेत से अपने पहले के कर्मस्थल को लौट जाना होगा ।” आसन्न वियोग की आशंका से लाहिडी महाशय की आँखों से अश्र्पात होने लगा । गुरु महाराज ने आश्वासन देते हुए कहा, “श्यामाचरण, तुम दुःख मत करो। जब भी तुम मेरा स्मरण करोगे तभी मेरे साथ तुम्हारा साक्षात् हो जायेगा, इसे जान रखो ।” लाहिड़ी महाशय ने इस समय बाबाजी से एक निवेदन किया । हाथ जोड़कर बोले, “बाबा, आप से मेरा एकांत अनुरोध है कि त्रितापसंतप्त अल्पायु मानव-समाज के लिए आप इस दुर्लभ योग- साधना को कृपा-पूर्वक सुलभ कर दें । अपने दिव्य करुणा स्रोत को उन्मुक्त कर दे ।” प्रिय शिष्य की इस आंतरिक प्राथना को बाबाजी ठुकरा न सके। बोले, “तथास्तु”!
बाद में चल कर योगी श्यामाचरण के द्वारा सचमुच बाबाजी महाराज की यह कृपाधारा अजस्त्र धाराओं में प्रवाहित होने लगी । बाबाजी महाराज ने एक दिन श्यामाचरण को बुलाकर कहा: “श्यामाचरण, अब अधिक दिन तुम्हारा यहाँ रहना नहीं होगा । एक सप्ताह के अन्दर ही बदली का आदेश आ रहा है । तुम्हें अब रानीखेत अंचल को छोड़कर चला जाना है ।” श्यामाचरण के दोनों नेत्र सजल हो गये । जिस गुरु के चरणों में उन्होंने सब स्वार्पण कर दिया, उन्हें छोड़कर फिर किस तरह जायंगे? इसके सिवा साधन-सम्पद् भी तो अभी तक पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हो सकी है ? मात्र सात दिन अब बाकी रह गये हैं । इतने अल्प समय में ही नये जीवन-पथ का सम्बल संग्रह कर लेना चाहिये। गुरु महाराज ने अपनी योगसिद्धि के कितने ही ऐश्वर्यों का मुक्तहस्त होकर उस दिन दान किया था, और शिष्य ने भी उसी प्रकार अपूर्व निष्ठा के साथ उन्हें ग्रहण किया था । प्रतिदिन की साधना समाप्त होने पर लाहिड़ी महाशय बाबा के चरणों में उपस्थित होते और उनसे योग के नाना साधन-रहस्य श्रवण करते । योगी जीवन की नाना विचित्र कहानियों को सुनकर वे विस्मय से अभिभूत हो जाते ।
सिद्ध पुरुषों एवं योगियों की लीलाभूमि यह हिमालय है। इसके शिखर पर, गुहा-गुहा में अध्यात्म-लोक के कितने वैभव छिपे हुए हैं, यह कौन बता सकता है ? बाबाजी महाराज ने नाना अलौकिक कहानियों के साथ-साथ इस समय श्यामाचरण को स्थानीय महायोगी की बात भी सुनायी थी । द्रोणगिरी की निर्जन गुहा से प्रायः पाँच मील दूर एक प्राचीन जीर्ण देवालय देखा जाता था । यह स्थान एक देवोपम सिद्ध महापुरुष का विचरण क्षेत्र था । साधु-संन्यासियों का विश्वास था, इन महापुरुष की आयु का कोई हिसाब नहीं है। स्थानीय जन इन्हें द्रोणगिरि का अभिभावक रूपी महात्मा समझते थे । कुछ लोग इन्हें पौराणिक युग का ‘अस्वत्थामा’ मानते थे। काठ की खड़ाऊं पहने हुए यह योगी खट-खट शब्द करते हुए आधी रात में उस देवालय में प्रवेश करते थे-उनकी शरीर-ज्योति से दिशाएँ आलोकित हो उठतीं।
योग साधन-पथ के पथिक लाहिड़ी महाशय को भी उनके गुरुदेव ने आधी रात में दूर से इस दिव्य पुरुष की ज्योति के दर्शन करा दिये । बाबाजी महाराज कहा करते थे, “कुछ लोग असाध्य मृतक-तुल्य रोगियों को इस महात्मा की कृपा के ऊपर भरोसा करके पहाड़ मे छोड़कर चले जाते हैं। कृपालु रहस्यमय पुरुष की दृष्टि पड़ने से वे रोगमुक्त हो जाते है”। लाहिंडी महाशय को स्वयं भी महात्मा के इस चमत्कार का एक दिन परिचय मिला ।
एक दिन दो-तीन साधुओं के साथ वे भ्रमण के लिए बाहर निकले । उनमें किसी एक ने जंगली फल को खा लिया, जिससे वह अत्यन्त पीड़ित हो गया, कै-दस्त होने लगे। इधर रात्रि का अंधकार क्रमशः घनीभूत हो रहा था। उनके साथी इस आकस्मिक विपद् से घबड़ा कर किकत्तंळ विमूढ़ बन गये। सामने ही ‘अश्वत्थामा’ के भग्न देवालय का शिखर दिखाई पड़ रहा था। दूसरा कोई उपाय न देखकर सब लोगों ने द्रोणगिरि के रहस्यमय महात्मा की शरण में ही उक्त्त रोगी को छोड़ देने का निश्चय किया। मृत्यु पथ के उस यात्री को उन लोगों ने देवालय के समीप लाकर रख दिया । दूसरे दिन वह पूर्ण स्वस्थ होकर वापस लौटा । उससे उक्त दिव्य पुरुष की कहानी और उनको कृपा की बात सुनकर लाहिड़ी महाशय के आश्र्चर्य की सीमा नहीं रही। मरणासन्न रोगी अपने जीवन के सम्बन्ध में एकबारगी हताश हो गया था। इसी समय दिव्य महापुरुष उसके पास आये और गरजते हुए बोले, “यहाँ तू कौन है रे?” इसके साथ ही पदाघात ! रोगी लुढ़कते-लुढ़कते पास की निम्न भूमि में गिर गया । कुछ समय के बाद ही उसके शरीर में नव बल का संचार हो आया। आश्चर्य की बात तो यह की वह् पांव-पैदल ही नीचे चला आया । दोणगिरि अंचल के इन सब सिद्ध योगियों का सान्निध्य और उनके चमत्कार की कहानियों को सुनकर लाहिड़ी महाशय बहुत प्रभावित हुए। अतीन्द्रिय जगत की नाना अलौकिक वार्त्ताओं को सुनकर वे साधना के मार्ग में उद्बुद्ध हो उठे।
इस समय चमत्कारपूर्ण योग विभूतियों का प्रदर्शन करके उनके कतिपय गुरुभाइयों ने भी इन्हें चकित कर दिया था । एक दिन लाहिडी महाशय अपने एक गुरुभाई और अन्य कई साधुओं के साथ पहाड़ी नदी गगास के उस पार शौचादि से निवृत होने के लिए गये हुए थे। लौटने में काफी देर हो गयी। तब तक पहाड़ी नदी में बाढ़ आ जाने से उसके दोनों तटों तक पानी लबालब भर गया । अब नदी को पार करना उनके लिए असंभव-सा हो गया । साथ में जो गुरुभाई थे वे एक अष्टसिंद्धि-प्राप्त योगी थे। अपने सिर से पगड़ी खोलकर उन्होंने उसी क्षण एक अलौकिक कार्य कर डाला। पगड़ी को जल में फेंक कर उन्होंने सब लोगों को उसके सहारे फौरन पार हो जाने के लिए कहा । शक्ति-संचारित इस बहते हुए, वस्त्रखण्ड को पकड़कर ही सब लोग नदी को पार कर गये । बाद में लाहिड़ी महाशाय उस दिन की घटना का वर्णन कितने ही लोगों को सुनाया करते थे । अपने गुरु से भी इस रहस्य के सम्बन्ध में उन्होंने प्रश्न किया था। बाबाजी ने उत्तर दिया, अष्ट- सिद्ध प्राप्त होने के कारण ही उनके उक्त शिष्य ने यह योगशक्ति प्राप्त की है। उन्होंने यह भी बताया कि निदिष्ट साधन मार्ग का अनुसरण करने से लाहिड़ी महाशय भी शीघ्र इस प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त कर लेंगे। लाहिड़ी महाशाय को यह समझने में देर नहीं लगी कि उस दिन गुरुभाई के इस आश्चर्यजनक योगशक्ति के प्रदर्शन के द्वारा स्वयं उनके गुरुदेव ने उनके अंतर में उद्दीपना का संचार किया था ।
गुरु भाइयो के समीप बैठकर लाहिड़ी महाशय बाबाजी महाराज की योग-विभूति की अनेक कहानियाँ सुना करते थे। द्रोणगिरि में उन्हें स्वयं भी इसका कुछ कुछ परिचय मिला था। एक दिन रानीखेत के समीपस्थ इलाके के एक धनी व्यवसायी ने बाबाजी महाराज तथा कई दूसरे साधुओं को अपने यहाँ भोजन के लिए निमंत्रित किया । यह सेठ बाबाजी का स्नेहपात्र था, किन्तु उसे अपने धन का बहुत बड़ा अभिमान था । बाबाजी महाराज ने उस दिन उसका अभिमान चूर्ण कर देने का निश्चय किया था। उन्होंने बता दिया कि अपने नये शिष्य लाहिडी महाशय को साथ लेकर वे आयेंगे। यह भी तय पाया कि अन्यान्य अतिथियों के आगमन के पूर्व ही वे सशिष्य उपस्थित होंगे, और पहुंचते ही उन्हें भोजन करा दिया जायगा । इसमें बिलम्ब नहीं होना चाहिये । यथासमय गुरु और शिष्य सेठ के घर पहुंचे। भोजन के लिए आसन ग्रहण करने पर लाहिड़ी महाशय ने जो दृश्य देखा उससे वे अवाक् रह गये। मिताहारी गुरुदेव में आज मानों सर्वग्रासी क्षुधा जाग पड़ी थी । थालों में भर-भरकर पूड़ियाँ, हलुआ, मालपूआ आते थे और बाबाजी उन्हें चट कर जाते थे और साथ ही पूछ बैठते थे, “ओर कुछ ?” इधर सेठजी के मुख पर हवाइयाँ उड़ने लगी थीं । इस बीच निमंत्रित साधु-संत वहाँ पहुँच चुके थे। अब उनकी सेवा किस प्रकार होगी ? भोज्य पदार्थं पर्याप्त परिमाण में प्रस्तुत किये गये थे, किलु अब बहुत थोड़े बच गये थे । सेठ जी कातर भाव से बाबाजी के शरणापन्न हुए । लाहिड़ी महाशय भी कहने लगे, “गुरुजी, आप क्या इस व्यक्ति का सर्वंनाश करने पर उतारू हो गये हैं ? अब दया करके शीघ्र उठ जायें ।” आसन पर से उठते हुए बाबाजी बोले, “सामर्थ्यं इतना कम फिर भी इस व्यक्ति का गर्वं तो देखो ! कहाँ तक वह भोज्य पदार्थ जुटा सकता है, यही देखने की आज मेरी इच्छा थी ।”
अपने आश्रित शिष्यों की शिक्षा एवं अनुशासन के विषय में बाबाजी महाशय अत्यन्त सतर्क रहा करते थे। सदा कठोर भाव से उनके साधन-जीवन पर नियन्त्रण रखते थे । भूल-चूक होने पर अपने शिष्यों को धुनी की जलती लकड़ी से प्रहार करने में भी आगा-पीछा नहीं करते थे । लाहिड़ी महाशय ने अपनी आँखों से यह सब देखा था ।
एक सप्ताह बीत गया । इस बीच लाहिड़ी महाशय को सामरिक इंजीनिर्यारिग विभाग से संवाद मिल गया है। अधिकारियों की भूल से उन्हें बदली का तार मिला था। अब शयामाचरण लाहिडी को रानी खेत में रहने की आवश्यकता नहीं – शीघ्र ही उन्हें दानापुर कार्यालय में लौट जाना होगा। गुरु की चरण वन्दना करके नवदीक्षित शिष्य ने सजल नेत्र द्रोणगिरि से प्रस्थान किया । वापसी यात्रा में लाहिडी महाशय मुरादाबाद शहर में दो-तीन दिन ठहर गये । इस समय एक विचित्र घटना घटित हुई । वे अपने कई बंगाली मित्रों के साथ विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श कर रहे थे । उनमें एक ने वार्तालाप के प्रसंग में कहा-“आधुनिक काल में पहले की तरह अलोकिक योग-विभूति संपन्न महात्माओं के दर्शन नहीं होते ।” श्यामाचरण ने दृढता के साथ कहा, “ऐसी बात नहीं है। ऐसे महात्माओं के दर्शन आज भी असंभव नहीं हैं । आप यदि चाहें तो मै ध्यान बल से आकर्षण करके आप को यहीं दिखा सकता हूँ |” मित्रों को यह सुनकर वड़ा आश्चर्य एवं कौतुहल हुआ । उन्होंने लाहिड़ी महाशय से साग्रह अनुरोध किया, जिसे वे टाल नहीं सके। इसके सिवा, उन्होंने स्वयं अपने गुरूदेव के योग बल एवं उनकी करूणा की चर्चा बात-चीत के सिलसिले में की थी । इसलिए यहाँ उस महापुरुष की मर्यादा रक्षा का भी प्रश्न था। वे बोले, “अच्छा तुम लोग मुझे एक एकांत कमरा दो। उसके सब दरवाजे और खिड़कियाँ बाहर से बंद रहेंगी। मेरे ध्यान करने पर श्री गुरुदेव अवश्य आविर्भूत होंगे ।” द्रोणगिरि के वाबाजी के निकट श्यामाचरण बहुत दिन नहीं रह सके | गुरु का वियोग असह्य होगा ऐसा सोचकर वे विह्वल हो उठे थे । उस समय बावाजी ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा था, “ बेटा, तुम मेरे वियोग से दु:खी मत होओ | जान रखो, तुम जब भी मेरा ध्यान करोगे, मैं तुम्हारे सामने प्रकट हो जाऊँगा। ” गुरुजी का यह वचन ही श्यामाचरण के लिए एक मात्र भरोसा था। आज इसीलिए एकांत कक्ष में बैठकर वे सद्गुरु का ध्यान करने लगे। ध्यानयोग से आकृष्ट होकर बाबाजी महाराज की सुक्ष्म सत्ता शीघ्र ही उस कक्ष में मूर्त्त हो उठी । पास के आसन पर बैठकर महा- योगी ने धीर-गम्भीर स्वर में कहा, “श्यामाचरण, तुम्हारे आह्वान पर मैं यहाँ पहुँचा हूँ। कितु साधारण वार्तालाप के प्रसंग में, साधु दिखाने के उत्साह में, तुम इतनी दूर से मुझे आह्वान करके ले आये। तमाशा दिखाने के लिए ही क्या मैंने तुममें शक्ति संचारित की है, तुम्हें योग विभूति का अधिकारी बनाया है ?” लाहिड़ी महाशय गुरुदेव के चरणों में साष्टंग दण्डवत् करते हुए वहाँ बैठ गये। गुरु ने जो उनका तीब्र तिरस्कार किया था, इससे उनके मुह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था । सिर झुकाये हुए वे चुपचाप वैठे थे । मन में सोच रहे थे, महायोगी द्वारा प्रदत्त शक्ति का दुरुपयोग करके मैंने एक अक्षम्य अपराध किया है। अवश्य ही उनके द्वारा यह अति निन्दनीय कार्य हुआ है। सद्गुरु की जाग्रत दृष्टि को धोखा देने की शक्ति ही उनमें कहाँ हैं ? बाबाजी महाराज ने दृढ़ स्वर में कहा, “सुनो, श्यामाचरण, अपने चचन और तुम्हारे सम्मान की रक्षा के लिए मैं यहाँ उपस्थित हुआ हुँ। कितु, भविष्य में तुम स्वयं स्मरण करके मेरा साक्षात् नहीं पा सकोगे मैं ही जब आवश्यक समझूंगा, स्वेच्छा से प्रकट हो जाऊँगा ।”
गुरु देव के चरणों में गिर कर श्यामाचरण बार-बार क्षमा याचना करने लगे। वस्तुतः अविश्वासियों के मन में विश्वास उत्पन्न कराने के लिए ही उन्होंने यह काम किया था। इसलिए बाबाजी महाराज से उन्होंने सविनय निवेदन किया, “गुरुदेव, यदि कृपा करके यहां आ गये, तो सब लोगों को एक बार दर्शन देकर कृतार्थ करें।” बाबाजी महाराज के इशारे पर कमरे के द्वार खोल दिये गये । लाहिड़ी महाशय के मित्रगण बाहर में अपेक्षा कर रहे थे, महायोगी के आविर्भाव का दर्शन करके उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही । सबने साष्टांग प्रणाम किया। यह न तो कोई इन्द्रजाल है, और न माया- मय शरीर का आविर्भाव, यह भी सबने अनुभव किया। इसके बाद पूड़ी-हलुआ तैयार कर के श्यामाचरण ने गुरू महाराज को भोग लगाया और सब लोगों ने मिलकर सानन्द उनका प्रसाद ग्रहण किया।
लाहिड़ी महाशय दानापुर लौटकर आफिस में कार्य करने लगे। बावाजी द्वारा प्रदत्त योग साधना ही इस समय उनके जीवन का प्रधान अवलम्ब था। महायोगी की कृपा का स्पर्श पाकर आज उनके जीवन का रूपान्तर हो गया था। एक नया आनन्द एक नूतन आलोक । अध्यात्म-जीवन का शतदल एक-एक कर प्रस्फुटित होने लगा था। आफिस के नित्य के कार्य को समाप्त करके वे दिनान्त में मौन भाव से एकान्त में योग साधना में निमग्न रहते। उनके जो सहकर्मी थे उन्हें भी उस समय उस महासाधक का वास्तविक परिचय मिलना कठिन था। आत्मभोला सदा तन्मय लाहिड़ी महाशय के इस रूपान्तर का यथार्थ स्वरूप यद्यपि वे समझ नहीं रहे थे, फिर भी कुछ लोगों को उनका रंग ढंग अस्वाभाविक जैसा प्रतीत होता था।
आफिस के ऊपरवाले साहब अपने इस उदासीन कर्मचारी को “पगला बाबू” कहकर पुकारते थे । एक बार की घटना से श्यामाचरण की अलौकिक योगविभूति कुछ प्रकट जैसी हो गई। आफिस के साहब कई दिनों से बहुत उदास देखे जा रहे थे। श्यामाचरण ने उनसे इस उदासी का कारण पूछा। सुना, इंगलेंड में उनकी मेम कठिन रोग से पीड़ित हैं और उनका बचना कठिन है। कुछ दिनों से उनका कोई समाचार भी नहीं मिला है, इसलिए बहुत चिन्ताग्रस्त थे। लाहिड़ी महाशय का हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने साहव को आश्वासन दिया, मैं आज ही मेम साहब का कुशल समाचार मंगा देता हूँ । अपने अधीनस्थ कर्मचारी के इस कथन पर साहब को सहज ही विश्वास नहीं हुआ। फिर भी श्यामाचरण ने साहब के प्रति जो समवेदना प्रकट की थी, उसका प्रभाव उनपर अवश्य पड़ा। उदास दृष्टि से लाहिड़ी महाशय की ओर देखते हुए वे चुप रहे ।
समीप के एक एकांत कक्ष में जाकर वे ध्यानाविष्ट हो गये । उसके बाद वहाँ से बाहर निकल कर साहब को सूचित किया, आपकी स्त्री चंगी हो गई हैं और वह शीघ्र ही अपने हाथ से आपको पत्र लिखेंगी। इतना ही नहीं, उन्होंने उस पत्र की भाषा और विषयवस्तु भी ह-बहू बतला दी ।
साहब ने भारतीय योगियों की कितनी ही अलौकिक विभूतियों की कथाएँ सुन रखी थी। किन्तु, उनके आफिस का ‘पगला बाबू’ शक्ति के अधिकारी हैं इस पर विश्वास करने का उनका जी नहीं करता था। फिर भी श्यामाचरण के कथन से उनके मन की उद्विग्नता उस दिन दूर हो गई। इसके कई दिनों के बाद ही मेम साहब का पत्र आ गया | लाहिड़ी महाशय ने पत्र की जो भाषा वतायी थी उसके साथ इसकी आश्चर्य जनक मेल देखकर साहब स्तंभित हो गये । कई महीनों के बाद साहब की स्त्री इंगलेंड से भारत आकर दानापुर में अपने पति से मिली।
सहसा एक दिन लाहिड़ी महाशय को देखकर उत्तके आश्चर्य की सीमा नहीं रही । साहब को वह दृढ़ स्वर में कहने लगीं, “इन महात्मा को ही इंगलेंड रहते समय मैंने देखा था, मेरी रोगशय्या की बगल में ये खड़े थे। जीने को जब कोई आशा नहीं रह गई थी, तब इन्हीं की कृपा से अलौकिक रूप से मैं रोगमुक्त हुई थी – मुझे पुनर्जीवन प्राप्त हुआ है ।”
पगला बाबू की इस अपूर्व योग-विभूति की बात सुनकर साहब को असीम आश्चर्य हुआ। योग-साधना के एक-एक स्तर को पार करते हुए लाहिड़ी महाशय आगे बढ़ रहे थे। योगी सदूगुरु की कृपा से उन्हें नाना अध्यात्म- अनुभूति एवं यौगिक विभूतियाँ प्राप्त हो रही थीं। गुरू की योगशक्ति से शक्तिमान होकर वे अपने जीवन के पूर्णतर रूपांतर पथ पर अग्रसर हो रहे थे। कुछ दिनों के बाद शीघ्र ही एक बार बाबाजी महाराज अपने प्रिय शिष्य की आवश्यकता समझ कर स्वेच्छा से वहाँ आविभूत हुए।
एक दिन लाहिड़ी महाशय अपने घर के निकट टहल रहे थे। उन्होंने देखा कुछ ही दूर पर एक वटवृक्ष के नीचे एक साधु गाँजे का दम लगा रहे हैं। उनके चेहरे में कोई भी आकर्षण नहीं था। शरीर पर जो वस्त्र था वह फटा-चिटा और गंदा था। देखने से उनके प्रति किसी प्रकार की श्रद्धा नहीं होती थी बल्कि मन में नाना सन्देह होने लगते थे। पहले जब लाहिड़ी महाशय इस प्रकार के किसी साधु को देखते थे, तो उन्हें वे ठग या चोर, बदमास समझ लेते थे । कितु यह कैसा आश्चर्य ! वे स्वप्न तो नहीं देख रहे हैं? साधु के समीप पहुँचने पर उन्होंने देखा, उनके पृज्यपाद गुरुदेव एकांत निष्ठा के साथ उस गंजेड़ी साधु का लोटा माँज रहे हैं । बावाजी महाराज यहां ? दानापुर आप कब आये और किस उदेश्य से ? और आपकी यह सोचनीय अवस्था क्यों ? निकट पहुँच कर साष्टांग प्रणाम किया। खेद के साथ बाबाजी से प्रश्न किया, “बाबा यह क्या; आप यह हीन काम क्यों कर रहे हैं? यह गँजेड़ो साधु कौन है ?” हाथ के लोटा को माँजते हुए गुरुजी ने प्रशांत कंठ से उत्तर दिया, “श्यामाचरण, मैं साधु सेवा जो कर रहा हूँ। सब घटों में मेरे नारायण विराजमान हैं। तुम भगवान के इस सर्वव्यापी चेतन्यमय रूप की उपलब्धि करने की चेप्टा क्यों नहीं करते ?”
लाहिड़ी महाशय को यह समझने में देर नहीं लगी कि सब जीवों और सब भूतों में परिव्याप्त परमात्मा के अस्तित्व को उनकी चेतना में जाग्रत करने के उद्देश्य से ही उनके सद्गुरु ने यह अपूर्व लीला की है। योगी शिष्य को वे महा प्रेमिक के रूप में रूपांतरित करना चाहते हैं। श्यामाचरण के चेतन एवं अवचेतन मन में जो भेद-ज्ञान आज भी सूक्ष्म रूप से वर्त्तमान था, वाबाजी महाराज उसका मूलो-च्छेद करने के लिए कटिवद्ध थे! लाहिड़ी महाशय के चैतन्य में उस दिन एक विराट् आलोड़न जाग उठा । बाबाजी महाराज को अपने घर ले जाकर उन्होने उनका आदर, सत्कार एवं सेवा की। योग-साधना के संबंध में आवश्यक निर्देश प्रदान करके गुरुदेव वहाँ से विदा हुए।
इसके वाद से लाहिड़ी महाशय के मनोभाव में एकबारगी परिवर्त्तंन हो गया। अब वह सब जीवों में नारायण के दर्शन करने लगे। दुष्ट एवं पापीजनों को भी ईश्वर समझ कर वे मन ही मन प्रणाम करने से नहीं चूकते। दर्शनार्थी एवं भक्तजनों के प्रणाम करने पर वे भी प्रत्याभिवादन करते। दानापुर में रहते हुए वे धीरे-धीरे योगाचार्य के रूप में अपने को प्रकट करने लगे। दो-चार जिज्ञासु मोक्षकामी भक्त भी उनके समीप क्रमश: उपस्थित होने लगे ।
वृन्दा भगत नामक एक सिपाही उनका परम दीक्षित शिष्य था। योग साधना द्वारा लाहिड़ी महाशय के उस निरक्षर शिष्य ने जो सफलता प्राप्त कर ली थी, वह् आश्चर्य- जनक थी । एक बार वाकीपुर के जमींदार के यहाँ विशिष्ट- ज्ञानी पंडितों के बीच धर्म-तत्त्व विषय को लेकर शास्त्रार्थ चल रहा था । वृन्दा भगत भी उस दिन अपने कई साथियों के साथ श्रोतारूप में उपस्थित था। पंडितों की कतिपय भ्रमपूर्ण उक्तियों का प्रतिवाद करते हुए उसने एकाएक धर्म के मूल तत्त्व की व्याख्या आरम्भ कर दी। उसकी यह व्याख्या साधन लब्ध. अनुभूति से पूर्ण और अनुभूत सत्य की दीप्ति से उज्वल थी। उस निरक्षर सिपाही के उस दिन के भाषण ने पंडित मंडली को चकित कर दिया । लाहिड़ी महाशय के आश्रय में रहकर वृन्दा भगत बाद में चलकर एक सार्थक योगी के रूप में प्रसिद्ध हो गया । लाहिड़ी महाशय उस समय अपने इस शिष्य के सम्बन्ध में सस्नेह कहा करते थे, “बृन्दा सच्चिदानन्द सागर में उतरा रहा है।”
रानीखेत में दीक्षा ग्रहण करने के बाद लाहिड़ी महाशय लगभग पचीस वर्ष नौकरी में रहे। आफिस के कार्य से जब जहाँ वे रहते दो-चार प्रकृत अधिकारी पुरुषों को निगृढ़ योगसाधन की शिक्षा प्रदान करते । इस समय बिहार के मुगेर और भागलपुर तथा बंगाल के विष्णुपुर, बाँकुड़ा और कृष्णनगर से योगसाधन की शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से एक शिष्य-दल उनकी सेवा में उपस्थित हुए। १८८५ ई० में लाहिड़ी महाशय सेवा-निवृत हुए। इन महासाधक के चरणों में इस समय से ही दल-के-दल साधक मुमुक्ष जन एकत्र होने लगे। सिद्ध योगी के आचाये-जीवन की वृहत्तर भूमिका इस समय से ही आरम्भ हुई । लाहिड़ी महाशय अपनी गुरु-प्रदत्त योगसाधना की शिक्षा-दीक्षा प्रधानतः गृहस्थाश्रम के साधक जनों को ही दिया करते थे।
बाबाजी महाराज ने उन्हें आदेश किया था, “श्यामाचरण, तुम संसार में लौट जाओ। वहाँ रहकर योग-युक्त साधु गृहस्थ-समाज की प्रतिष्ठा करो, प्राचीन योगसाधन की निगूढ़ धारा को पुनरुज्जीवित करो ।” इसीलिए लाहिड़ी महाशय चाहते थे कि उनके शिष्यगण आध्यात्मिक मार्ग में उन्नति करके गृहस्थाश्रम में ही रहें। साधनेच्छु जनो को संन्यास ग्रहण करने से वे मना करते थे । उनको सावधान करते हुए कहा करते थे, “संन्यास-जीवन बड़ा कठिन और दायित्वूर्ण है। जान रखो गृहस्थाश्रमी की भूल-चूक के लिए कुछ क्षमा हो सकती है , किन्तु संन्यासी की भूल-चूक के लिए कोई क्षमा नहीं।”
किन्तु वस्तुत: इन सब गृहस्थ भक्तों एवं शिष्यों के अतिरिक्त उनके कितने ही स्वत्यागी. ब्रह्मचारी एवं दण्डी सन्यासी शिष्य भी थे । ‘काशी का बाबा’ या ‘योगीराज’ के रूप में अब वे जनसाधारण में अभिहित होने लगे थे। ऊँच-नीच, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सब सम्प्रदायों के मुमुक्षु जनों के लिए योगिराज का कृपा द्वार निरन्तर खुला रहता था । निरक्षर सिपाही वृन्दा भगत जिस प्रकार उनके आश्रय में रहकर एक योगसिद्ध महापुरुष बन गया उसी प्रकार अब्दुल गफूर खाँ नाम का एक गरीब मुसलमान भक्त भी उनसे योगसाघन की शिक्षा प्राप्त करके योग की उन्नतावस्था को प्राप्त हुआ। दरिद्र काशीवासी से लेकर काशी-नरेश ईइवरी नारायण सिंह जैसे प्रभावशाली व्यक्ति दीक्षा लाभ के लिए योगिराज के शरणागत होते देखे जाते थे ।
गृहस्थ भक्तों के साथ-साथ विशिष्ट संन्यासी साधकों का भी उनके समीप आना-जाना लगा रहता था। सन्यासी साधकों में जो लोग उनके समीप आया-जाया करते थे, उनमें देवघर के श्री बालानन्द ब्रह्मचारी एवं काशी के श्री भास्करानन्द सरस्वती के नाम उल्लेखनीय है । समाज के विभिन्न वर्गों के बहुसंख्यक शिष्यों से घिरे रहकर लाहिड़ी महाशय अब काशी में बास करने लगे थे । उनके सिद्ध जीवन के अन्तिम दस वर्ष आश्चर्यजनक योग-विभूतियों एवं करुणा के अनुपम माधुर्य से परिपूर्ण ये ।
काशीपुरी जैसे भारत के श्रेष्ठ अध्यात्म-केन्द्र में रहते हुए योगिराज की अलौकिक लीलाएँ एक-एक कर प्रकट होने लगीं। उन लीलाओं की अद्भुत कहानियाँ आज भी लोगों के मुख से सुनी जाती हैं। लाहिड़ी महाशय उस समय काशी के गएछड़ेश्वर मुहल्ला में रहा करते थे। उनके अन्तरंग शिष्य युक्तेश्वर प्रायः नित्य गुरु के दर्शन के लिए जाया करते थे। राम उनके एक घनिष्ठ मित्र थे, जो प्रायः उनके साथ हो लिया करते थे। योगिराज का सत्संग-लाभ और उनके उपदेशों को सुनकर दोनों के दिन बड़े आनंद से व्यतीत हो रहे थे। अचानक एक दिन राम हैजा रोग से आक्रांत हुआ। रोग भयानक था। युक्तेश्वर घबराये हुए दौड़कर गुरुदेव के निकट पहुँवे । लाहिड़ी भहाशय ने रोग की चिकित्सा के लिए कुशल डाकटरों को बुलाने की सलाह दी। ऐसा ही किया गया । शहर के दो प्रसिद्ध अनुभवी डाक्टर रोगों की शय्या के पास तत्पर थे, फिर भी चिकित्सा से कोई लाभ नहीं हो रहा था। डाबटरों ने हताश होकर युक्तेश्वर को बता दिया कि रोगी अधिक-से-अधिक दो घंटे तक जीवित रह सकता है। युक्तेश्ववर फिर दौड़कर गुरुदेव के पास गये और रोगी की गंभीर अवस्था से उन्हें परिचित कराया। आसन पर बैठे हुए योगी के चेहरे पर किसी प्रकार का उद्वेग॒ नहीं देखा गया। उन्होंने युक्तेश्बर से केवल इतना ही कहा, “जाओ, भय मत करो । डाक्टर तो देख ही रहे हैं !”
लौटकर आने पर युक्तेश्वर को मालूम हुआ कि रोगी के बचने की कोई आशा नहीं है। यह कह कर दोनों डाक्टर चले गये हैं। मृत्यु के पूर्व क्षण राम एक बार क्षीण स्वर में बोला, “भाई गुरुदेव से जाकर कहो, मैं अब चला । एक बात और, अंत्येष्ठि क्रिया के पूर्व मेरे इस शरीर को वे आशीर्वाद दें।” राम के निष्प्राण शरीर को घर में रखकर युक्तेश्वर उसी समय दौड़कर गुरु के समीप गये । लाहिड़ी महाशय ने पूछा “क्यों, राम का क्या हाल है ?” शोकातुर युक्तेश्वर रो पड़ा। रोते हुए उत्तर दिया “गुरू देव, स्वयं चलकर देख लें, वह कैसा है। उसके मृत शरीर को शमशान लेजाने का उद्योग हो रहा है। “शांत होओ।” इतना कहकर योगिवर ने आँखें मूंद ली। उनकी घ्यानाविष्ट मूर्त्ति कुछ समय तक नीरव एवं निश्चल रही । इसके वाद जब बाह्मज्ञान लौट आया, उन्होंने सामने जलते हुए दीप से थोड़ा सा, रेड़ी का तेल निकाल, उसे युक्तेशवर के हाथ में देते हुए कहा, “जाओ इसे तुरत राम को पिला दो ।” युक्तेश्वर को बड़ा आश्चर्य हुआ। किस को पिलाया जायगा ? राम की मृत्यु तो उसकी आँखों के सामने ही हो चुको थी। और गुरुदेव को भी तो यह मालूम ही है, उनसे तो कभी कोई भूल नहीं हो सकती । फिर भी आदेश्नुसार उसे कार्य करना ही होगा। इसलिए वह शीघ्र लौट कर घर आ गया। उस समय तक राम का शरीर एकदम शीतल हो गया था, जीवन का कोई लक्षण नहीं । किसी प्रकार मुह के अंदर कई बूंद तेल डाल दिया गया। इसके बाद जो अलौकिक घटना देखी गई, उससे जितने लोग वहां उपस्थित थे विस्मय-विमृढ़ हुए बिना नहीं रहे ।
सब लोगों के समक्ष ही राम के निःस्पंद शरीर में धीरे-धीरे प्राण संचार होने लगा और वह होश में जाने लगे।
स्वस्थ होने पर उन्होंने उस दिन की विचित्र अभिज्ञता का इस प्रकार वर्णन किया- मुझे दिखाई पड़ा कि एक ज्योतिमय पुरुष के रूप में लाहिड़ी महाशय मेरे सिरहाने खड़े हैं। मुख्॒ मण्डल पर मधुर हंसी विखेरते हुए शांत स्वर में योगिराज कह रहे हैं, “राम और कितना सोओगे ? जाग पड़ो, और तब शीघ्र मेंरे समीप आ जाओ |”
युक्तेश्वर कहा करते थे, इसके बाद में जो घटना घटित हुई उसे यदि मैं अपनी आँखों से नहीं देखता, तो सब मुझे एक गप जैसा प्रतीत होता। उन्होंने आश्चर्य के साथ देखा कि सचमुच राम कपड़ा पहनकर अपने गुरु देव के समीप जाने के लिए तैयार हो गया है। इसके बाद दोनों मित्र एक साथ गाड़ी पर सवार होकर उन के पास पहुँचे । रहस्यपूर्ण भाव से हँसते हुए योगिराज बोले, “युक्तेशवर, आगे से किसी मृत शरीर को देखते ही फौरन एक बोतल रेडी का तेल जुटा- कर रखना। प्रत्यक्ष देखा तो इस तेल की कई बूँदों ने यम को भी परास्त कर दिया ।* लाहिडी महाशय का यह परिहास सुनकर जितने लोग वहाँ उपस्थित थे, सब हँसने लगे । कितु युक्तेश्वर की असल वात उसी समय समझ में आ गई। योगिराज लौकिक रीति के अनुसार वैज्ञानिक चिकित्सा में ब्याघात उत्पन्त करना नहीं चाहते थे, इसलिए डाक्टरों को मौका दिया गया। और यह् रेड़ी का तेल बस्तुतः कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं था वह तो उपलक्ष्य मात्र था। युक्तेह्वर के मन में यह छिपी हुई आकांक्षा थी कि एक रोगनाशक औषधि दी जाय । इसलिए उसके संतोषार्थ उस दिन गुरुदेव ने तेल प्रदान किया था । यही चीज उस समय वहाँ सुलभ थी, इसलिए गुरुदेव ने सहज ही उसका व्यवहार किया था। मृत देह में प्राण-संचार तो उतके योगबल से ही हुआ था, इसमें जरा संदेह नहीं ।
योगिराज श्यामाचरण अपने आश्रित शिष्यों के योग-क्षेम के संबंध में सदा सतर्क रहा करते थे । अभया नाम की उनकी एक प्रिय शिष्या थी। उसके पति कलकत्ते में एक नामी वकील थे। इस दम्पति की आठ संतानें थीं, जिनमें एक-एक कर सभी क्रूर काल द्वार कवलित हो चुकी थीं। इसलिए जब अभया संतानसंभवा हुई, उसने गुरुदेव के चरणों को पकड़ कर अपनी नवीं सन्तान की प्राण-रक्षा के लिए विनती की और कहा कि आपको इतनी दया करनी होगी। आश्वित-वत्सल लाहिड़ी महाशय ने कहा, “अच्छा,अच्छा ऐसा ही होगा ! इस बार तुमको एक कन्या होगी और वह अच्छी तरह जीवित रहेगी । कितु मेरा एक विशेष आदेश है, जिसके पालन में तुम से त्रूटि नहीं होनी चाहिये ! शिशु का जन्म रात्रि में होगा । उस समय से लेकर सूर्योदय तक घर में एक तेल का दीप जलते रहना चाहिये। किंतु सावधान, प्रसूतिगृह में जो लोग हों, वे सो न जायें और दीप कभी बूझे नहीं । अभया के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ। आदेशानुसार घर में दीप जलाये रखने की व्यवस्था की गयी। किंतु रात के अंतिम पहर में प्रसूति और धाई दोनों सो गयीं। दीप का तेल भी समाप्त होने पर है-लौ बुझने-बुझने पर है। इसी बीच में प्रसूत-हि मेंगू शर्ट भारत के महान साधक एक अलौकिक कांड हो गया। कमरे का बंद दरवाजा एकाएक हवा के झोंके से खूल गया । अभया की नींद टूट गयी और उसने विस्म्य – विस्फारित नेत्रों 8 देखा कि लाहिड़ी महाशय कमरा के दरवाजे पर खड़े हैं। टिमटिमाते चिटराग की लौ की ओर अंगुली से इशारा करते हुए वे नव प्रसूती को कह रहे हैं, ‘अभया ! इधर देखो बत्ती बुझती जा रही है।” वह हड़बड़ा कर उठी और दीप में तेल डाल दिया। उसी क्षण गुरुदेव की करुणाधन मूर्ति न मालूम कहाँ अदृश्य हो गयी । यह महिला एक बार गुरुदेव श्यामाचरण के दर्शनों के लिए उत्कंठित होकर कलकत्ता से काशी जा रही थी। हावड़ा स्टेशन पर पहुँचने के साथ-साथ बनारस एक्सप्रेस छूट गयी, ओर वह गाड़ी पर सवार न हो सकी । उनका हृदय दुःख से व्याकुल हो उठा। योगिराज की पवित्र मूत्ति का स्मरण करके वह रोने लगीं । इसी समय अचानक देखा गया कि प्लेटफार्म से कुछ दूर पर गाड़ी रुक गयी है ; ड्राइवर और इंजीनियर को इस प्रकार ट्रेन रुक जाने का कोई कारण मालूम नहीं हो रहा है। महिला दौड़ कर अपने सामान के साथ ट्रेन के डब्बे में सवार हो गयीं। आश्चर्य, उनके स्थिर होकर बैठने के साथ-साथ गाड़ी चल पड़ी । काशी पहुँचकर जब वे गुरुदेव को प्रणाम करने गई , उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “गाड़ी पकड़ ने के लिए कुछ और पहले चलना होता है । तुम लोग मुझे कितनी परेशानी में डाल देती हो ! बोलो तो यदि बाद की गाड़ी से काशी पहुँचती, तो इससे क्या क्षति होती ?” काशी में उस समय तैलंग स्वामी के योगेश्वर की बड़ी ख्याति थी। स्थानीय जनता तथा तीर्थयात्री उन्हें अत्यन्त श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे । स्वामी जी महाराज एक दिन गंगा घाट पर आसन लगाये बैठे थे। उनको घेर कर भक्तगण बैठे हुए थे। इसी समय धोती कुर्ता पहने हुए एक बंगाली सज्जन अपने दो साथियों के साथ उन्हें प्रणाम करने के लिए वहां पहुंचे । आगन्तुक सज्जन का मुख मण्डल आनन्द प्रफुल्ल था। घीर-गंभीर पद से उन्हें आगे बढ़ते हुए देखकर स्वामीजी सहर्ष उठ कर खड़े हो गये । उस समय ऐसा लगा मानों योग साधना का मूर्त्त (मैनाक) पर्वत किसी जादू के स्पर्श से सचल बन गया हो। स्वामीजी ने आगे वढ़कर नवागन्तुक को अपनी विशाल छाती से लगा लिया। उस समय श्रेष्ठ योगी तैलंग महाराज का सर्वांग आनंद के आवेग से उच्छलित हो रहा था। वे आगन्तुक सज्जन कुछ क्षणों तक उनके समीप रहे, उसके बाद श्रद्धा भाव से प्रणाम करके अपने साथियों के साथ चले गये । तैलंग स्वामी के अंतरंग भक्त अब तक विस्मित होकर इस दृश्य को देख रहे थे। इन गृहस्थ सज्जन की अभ्यर्थना करके स्वामीजी कितने उल्लसित हो रहे थे। इस प्रकार हर्षोत्फुल्ल भाव से उन्हें कभी किसी का आलिंगन करते नहीं देवा गया था। इस प्रकार का दृश्य उनके भक्तों ने अब तक कदाचित् ही प्रत्यक्ष किया था। आगन्तुक के चले जाने पर सबने उत्सुक होकर स्वामी जी से पूछा, “बाबा, ये व्यक्ति क्या इतने बड़े साधक थे कि आपने इतने उत्साह के साथ उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित किया ?” स्वामीजी ने प्रशांत कंठ से उत्तर दिया, ‘ योग-साधना की जिस उन्नत अवस्था पर पहुँचने के लिए साधकों को लंगोट तक छोड़नी पड़ी है, गृहस्थी में रहते हुए भी इस पुरुष ने उस पद को प्राप्त कर लिया है।”! उपस्थित भक्त मंडली को इसके बाद पता चला कि ये असाधारण योग-विभूति के अधिकारी श्यामाचरण लाहिड़ी हैं। भारत के अन्यतम श्रेष्ठ योगी ‘बाबाजी माहराज की निगूढ़ साधन पद्धति को इन्होंने आयत्त किया है। गृहस्थाश्रम में रहकर प्रधानतः गृहस्थों में योग – साधना का प्रचार करना इनका व्रत है। काशी के अध्यात्म-मंडल में उस दिन से लाहिड़ी महाशय के संबंध में विशेष रूप से चर्चा होने लगी। योगि-श्रेष्ठ महा ब्रह्मज्ञानी तैलंग स्वामी की स्वीकृति मिल जाने पर साधक समाज के एक नेता के रुप में शीघ्र ही उनकी प्रसिद्धि हो गयी ।
लाहिड़ी महाशय के एक दीक्षित शिष्य स्वामी केवलानन्द भास्करानन्द सरस्वती से वेदांत पढ़ा करते थे । भास्करानन्द जी ने किस प्रकाश योगिराज श्यामाचरण से योग साधन की कुछ शिक्षा प्राप्त की थी, इसका विवरण केवलानन्द जी ने दिया है। श्यामाचरण महायोगी वाबाजी महाराज के शिष्य और उनकी निगूढ़ योग-साधन के अधिकारी थे। स्वामी भास्करानन्द जी से यह बात छिपी हुई नहीं थी । उनसे योग की कई विशेष पद्धतियों की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उत्कंठित होकर उन्होंने लाहिड़ी महाशय को अपने आश्रम में पधारने के हेतु आमंत्रित किया। लाहिड़ी बहाशय ने केवलानन्द जी से आमंत्रण की वात सुनी । इसके बाद रहस्यात्मक ढंग से उन्होंने जो उत्तर दिया, वह बड़ा तात्पर्य पूर्ण था । उन्होंने कहा, “प्यास लगने पर प्यासा मनुष्य कुए के पास दौड़ कर जाता है । क्या कुआं कभी उसके लिए अपना स्थान छोड़ता है ? बाद में चलकर एक निर्जंन उद्यान में अकस्मात् दोनों एक दूसरे से मिले। कृपालु लाहिड़ी महाशय ने उस समय भास्करानन्द जी को योग की कतिपय गूढ़ शिक्षा प्रदान की । योगिराज की धर्म पत्नी काशीमणि देवी अपने पतिदेव के योगेश्वर के सम्बन्ध में कितनी ही कहानियाँ सुनाया करती थीं। बाद में आचार्य योगानन्द ने उनमें से कुछ तथ्यों का संकलन किया था । एक दिन बहुत रात बीते काशी देवी की निद्रा अचानक भंग हो गयी । उन्होंने जगकर देखा, सारा कमरा एक उज्वल प्रकाश से भर गया है, और घर के एक कोने में पद्मासन लगाये हुएं योगिराज भूमि से ऊपर उठ कर शून्य में अवस्थान कर रहे हैं । काशीमणि तो यह दृश्य देखकर स्तम्भित हो गयी। वह मन-ही-मन सोचने लगीं, मैं स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ? योगिराज पत्नी को ओर भी विस्मित करके मृदु गंभीर कंठ से कहने लगे, “नहीं ! यह तुम्हारा भ्रम नहीं है या एक स्वप्न में देखा हुआ कोई दृश्य नहीं है। तुम तामसी निद्रा से जाग उठो-चिरकाल के लिए जाग्रत हो जाओ !” इसके बाद उनका शरीर धीरे-धीरे शून्य से अवतरण करके भूमि पर आसीन हो गया। पतिदेव के चरणों में साष्टांग प्रणत होकर काशीमणि ने उनसे साधन की प्रार्थना की। इसके बाद ही योगिराज ने उन्हें दीक्षा एवं योग- साधना प्रदान की । एक बार लाहिड़ी महाशय की एक भक्ति मति शिष्या ने उनसे एक फोटो की माँग की । फोटो देते समय उन्होंने कहा, “यदि सचमुच भक्ति- विश्वास करो और मानो तो यही एक परम अवलम्ब होगा, नहीं तो एक साधारण फोटो मात्र ।” इसके कुछ समय बाद की घटना है। एक दिन संध्या समय यह महिला एक गुरु बहन के साथ बैठ कर ज्ञास्त्र ग्रन्थ पाठ कर रही थी। सामने टेबुल पर लाहिड़ी महाशय की तस्वीर रखी हुई थी। उस दिन एकाएक बड़े जोरों का आँधी-पानी शुरू हुआ और उस घर के ऊपर बिजली गिरी। महिलाएँ जिस ग्रन्थ का पाठ कर रही थीं, वह बिजली से आहत हुआ, कितु दोनों महिलाएँ आश्चर्यजनक रूप में गुरुकृपा से बाल-बाल बच गई । दुर्घटना के समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि कोई अदृश्य कल्याण-शक्ति एक बर्फ की दीवार द्वारा बिजली के आघात से उनकी रक्षा कर रही है । लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य काली कुमार राय ने गुरूदेव के सम्बन्ध में कितनी ही ज्ञान-वर्धक कहानियों का विवरण दिया है । उन्होंने लिखा है, ”मैं ठाकुर के काशी स्थित घर पर बार-बार जाया करता था और वहाँ कई सप्ताहों तक ठहरता था । उस समय देखता था कि बहुत से साधु, सन्त, दण्डी, संन्यासी मध्य रात्रि में नीरव भाव से उनके चरणों में उपस्थित होते । उच्चतम ज्ञान-तत्त्व एवं दुरूह योग-साधन की विभिन्न पद्धतियाँ वे श्रद्धा के साथ गुरुदेव से शिक्षा के रूप में ग्रहण करते। और, ये सब आगंतुक तड़के ही चुपचाप न मालूम कहाँ चले जाते । लगातार कई सप्ताहों तक मैंने ठाकुर को सोते नहीं देखा ।”
योगिराज लाहिड़ी महाशय उस समय विराट् अध्यात्य-श्रक्ति के उच्चासन पर अधिष्ठित हो चुके थे। साधना एवं शक्ति का दिव्य भंडार जन कल्याण के लिए उन्मुक्त कर देने को वे बैठे थे । भाव प्रेरित, मुमुक्षु, योग-साघन-प्राप्त शिष्यगण, जो कोई भी इस महापुरुष के दर्शन करते, अति आनन्द धारा में अभिषिक्त हुए बिना नहीं लौटते । लाहिड़ो महाशय के दरस-परस में ही न मालूम कितने संसारी जनों का तत्काल आध्यात्मिक रूपान्तर हो गया था। दर्शनार्थियों में कुछ अविश्वासी लोग भी हुआ करते थे । इनके आवागमन से लाहिड़ी महाशय के व्यवहार में कोई अन्तर नहीं पड़ता । किन्तु व्यंग्य-विरूप करने वाले दुष्ट प्रकृति के अविश्वासी व्यक्तियों को बीच-बीच में वे शान्ति प्रदान किया करते थे। योग मार्ग की मर्यादा- रक्षा के लिए सदा नि्लिप्त ध्यान-तन्मव योगिराज को बीच वीच में सतर्क होते भी देखा जाता था। उनके शिष्य काली कुमार राय ने इस सम्बन्ध में एक कहानी का उल्लेख किया है । काली कुमार बाबू को दीक्षा ग्रहण किए हुए अभी कुछ ही दिन हुए ये और गुरु द्वारा निर्देशित साधन-पथ पर वे अग्रसर हो रहे थे । उनके आफिस का जो बड़ा बाबू था, उसे यह सब अच्छा नहीं लगता था। लाहिड़ी महाशय के विरूद्ध प्राय: व्यग्यपूर्ण बावयों का प्रयोग करता रहता था। एक बार काली कुमार बाबू का पीछा करते हुए वह भी लाहिड़ी महाशय के गछुड़ेश्वर महल्ला वाले निवास स्थान पर आया । उसका उद्देश्य था योगिराज के धर्माचरण को ढोंग सिद्ध करना और उनका अपमान करना ।
कमरे के अंदर लाहिड़ी महाशय के दस-बारह जन बेठे हुए थे। आगंतुक उनके सामने आकर बैठ गया। उसके आसन ग्रहण करने पर योगिराज ने घीर-गंभीर भाव से सब लोगों से पूछा, “तुम लोग क्या आज एक विचित्र दृश्य देखना चाहते हो ?” सब ने सोत्साह ‘हाँ’ कहा । कमरे को तुरंत अँधेरा कर दिया गया। योगिराज के संकेत से उस समय भक्तों के सम्मुख धीरे-धीरे एक अलौकिक दृश्य प्रकटित होने लगा । सब लोगों ने देश्वा, एक सुंदरी युवती लाल किनारे की साड़ी पहने हुई वहाँ खड़ी है। फिर काली कुमार बाबू के आफिस का जो बड़ा बाबू था उसे पुकार कर लाहिड़ी महाशय ने तीक्ष्ण स्वर में पूछा, ” देखो तो, इस रमणी को पहचानते हो या नहीं “? इस समय तक इस आगंतुक की बहादुरी और व्यंग्य का उत्साह कुछ ठंडा- पड़ चुका था। डरी हुई आवाज में उसने कहा, “जी हाँ, यह मेरी परिचिता है”। भय और लज्जा से उसका चेहरा फक हो गया। उसने सब कुछ निश्छल भाव से स्वीकार किया । वह स्त्री उसकी रखैल थी। अपनी पत्नी और पुत्र के होते हुए भी इस स्त्री के पीछे मूर्ख की तरह वह धन खर्च कर रहा है। योगिराज का अध्यात्म प्रभाव, उनकी योग-विभूति के इस विचित्र प्रकाश को देख कर उसके मन में बड़ा अनुताप हुआ । आँसू से रुंधे हुए गले से उसने निवेदन क्रिया “बाबा, मुझे क्षमा करें, इस पाप-मोह से मेरी रक्षा करें। मुझे भी दीक्षा प्रदान करके अपने श्रीचरणों में शरण दें ।” कितु सर्वज्ञ योगेश्वर की दृष्टि में उसके अनुताप एवं दुःख वास्तविक नहीं थे। दीक्षा प्राप्त करने की जिसकी पूरी तैयारी नहीं है और जो उसका अधिकारी नहीं है, उसे वे किस प्रकार ग्रहण करते ? उत्तर दिया “अच्छा. आगामी छह मास तक यदि आप संयत होकर रहेंगे, तो मैं आपको दीक्षा दूंगा । उक्त उच्छंखल व्यक्ति को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । किसी प्रकार तीन महीनों तक संयत जीवन व्यतीत करने के बाद फिर उस रमणी के साथ उसका संपर्क हुआ और उसके दो महीने के पश्चात् उसकी मृत्यु हो गई। योगिराज ने उस दिन क्यों उसका अनुरोध टाल दिया और छह मास के बाद दीक्षा देने की बात कही थी, इसका रहस्य अब लोगों की समझ में आया ।
विशाल योग-विभूति के ऐश्वर्य को लाहिड़ी महाशय सहज ही स्वच्छन्द भाव से धारण किये हुए चल रहे थे। बिना विशेष प्रयोजन के उन विभूतियों को प्रकट. करते हुए उन्हें नहीं देखा जाता था। कभी दुष्टजनों को दंड देने के लिए और कभी लीला के रूप में वे अपनी योग- शक्ति का लोगों के सामने बीच-बीच में प्रकट किया करते थे । मुमुक्षु भक्तों के विश्वास को दृढ़तर करने के लिए भो वे कभी-कभी अपनी विभूति-लीला का प्रदर्शन करते थे । लाहिड़ी महाशय का पड़ोसी एक युवक एक दिन उन्हें प्रणाम करने के लिए आया। उसका नाम चन्द्रमोहन दे था । कुछ ही समय पहले डाक्टरी परीक्षा पास करके वह बाहर निकला था । योगिराज ने उत्ते आशीर्वाद दिया और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की उन्नति के सम्बन्ध में उससे कुछ प्रइन पूछने लगे। नया डाक्टर चन्द्रमोहन उनके अ्रदनों से बहुत उत्साहित हुआ और आधुनिक शरीर-विज्ञान के विभिन्न तत्त्वों को उन्हें समझाने लगा । प्रसंगक्रम में योगी ने डाक्टर से पूछा. “तुम्हारे चिक्रित्सा-विज्ञान में मृतक की क्या परिभाषा है, कहो तो ?” इसके बाद परिहास करते हुए बोले, ‘अच्छा, तुम मेरी परीक्षा करके बोलो तो, मैं सचमुच मृत हूं या जीवित ?” चन्द्रमोहन उनकी देह की परीक्षा करके एकबारगी बवाक हो गया। इवास श्रश्वास को क्रिया का कोई भी लक्षण नहीं हृदयविड नि.शब्द निए्चल। सारे शरीर में प्राण का कोई भी चिह्न ढूंड़े नहीं मिलता । कुछ क्षणों के बाद आंखें खोलकर उन्होंने डाक्टर से कहा, “देखो चन्द्रमोहन, एक बात स्मरण रखो । स्थूल जगत् के ज्ञान के बाहर अतीन्द्रिय सूक्ष्म लोक के अनेक तत्त्व एवं तथ्य हमारे लिए ज्ञातव्य हैं। तुम्हारा आधुनिक विज्ञान अपना सीमित ज्ञान लेकर वहाँ तक नहीं पहुँच सकता, कितु भारतीय साधकों की योग-शक्ति सहज ही वहां पहुँच सकती है। ‘ चंद्रमोहन का उस दिन का विस्मय सदा के लिए श्रद्धा में परिणत हो गया। बाद में चलकर वे एक यशस्वी चिकित्सक के रूप में र्यात हुए । कितु लाहिड़ी महाशय ने उस दिन उसके सामने जो योग- योगिराज कभी अपना फोटो खिचवाने के लिए राजी नहीं हुए । एक बार उनके भक्त एवं शिष्यगण उनक्रा फोटो लेने के लिए बहुत आग्रह दिखाने लगे । काशी के नामी फोटोग्राफर गंगाधर बाबू को बुलाया गया और योगिराज को बहुत अनुनय विनय के बाद राजी किया गया । केमरा के सामने जाकर योगिराज बालक के समान उसके यंत्र- कौशल तथा उसकी क्रिया के संबंध में कौतूहल प्रकट करने लगे । फोटोग्राफर भी उत्साहित होकर उन्हें केमरा के कल-पूर्जों और उसकी कार्यप्रणाली के संबंध में बहुत कुछ बताने लगा। फोटो लेते समय फोटोग्राफर बड़ी मुछ्ठिकल में पड़ गया। योगिराज की छवि न मालूम क्यों केमरा के ‘विउ फाउडर’ में प्रतिफलित नहीं हो रही है। बार-बार परीक्षा करके देखी गयी, कल पुर्ज में कोई गड़बड़ी नहीं थी । और, इससे भी बढ़कर आइचय का विषय तो यह कि अन्य कोई व्यक्ति यदि केमरा के सामने आता, तो उसकी छवि ज्यों-की-त्यों प्रतिफलित हो उठती । कितु योगिराज का प्रतिरूप उसमें दृश्यमान नहीं हो रहा हैं। किसी भी सम्भव कारण का पता नहीं लगने पर फोटोग्राऊर विमूढ़ हो गया । कौतुकी लाहिड़ी महाशय इतने समय तक चुपचाप बैठे हुए मुस- करा रहे थे। अब उन्हेंने पूछा, ‘क्यो जी ! इस विषय में तुम्हारा विज्ञान क्या कहता है, बोलो तो ?” कुशल फोटोग्राफर इस अभूतपूर्व घटना का कोई कारण निर्णय नहीं कर सका और वह॒हतास हो गया। योगिराज से उसने कातर स्वर में कहा, “जहन्नुम में जाय हमारा विज्ञान ! मैं आपक्री शरण ले रहा हूँ । भाप अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करें -और आपको तस्वोर खींचकर मैं भी अपने मन की रक्षा कर सक्। आप एक बार दया करें।” लाहिड़ी महाशय मुसकराते हुए फिर अपना फोटो उतरवाने के लिए तैयार होकर बेठ गये । इस बार सब लोगों ने आइचर्य के साथ देखा, उनकी छवि हू-ब-हू केमरा में प्रतिफलित हो गई है । उस दिन जो फोटो लिया गया था, उससे ही उनका बहुप्रचारित तेलचित्र अंकित किया गया था। साधनहीन पंडितों को नि:सार धर्मालोचना में योगिराज ने कभी उत्साह नहीं दिखाया । आसन, मुद्रा, प्राणायाम एवं ध्यान आदि की गूढ़ यौगिक क्रियाओं पर वे विशेष जोर दिया करते थे । “’ध्यानलोक की प्रत्यक्ष अनुभूति का आस्वादन करो और परमात्मा का दर्शन प्राप्त करके उद्वुद्ध हो” – दर्शनाथियों को वे बराबर यही उपदेश दिया करते थे । जिस इंद्वियातीत राज्य में वे स्वयं विचरण क्रिया करते थे, शिष्य-भवतों में उप्तो के रहस्य का उद्बाटन करने में उन्हें सदा तत्पर देखा जाता था। गुरुदेव की प्रत्यक्ष अनुभूतियों का विभिन्न रूपों में परिचय प्राप्त करके उनके भवतों के हृदय में आध्यात्मिक चेतना उत्पन्न हुए बिना नहीं रहती । एक दिन योगिराज भक्तमंडली से घिरे हुए बैठे थे। वार्तालाप के प्रसंग में वे गोता के कतिपय इलोकों की व्याख्या कर रहे ये । ह्सा वे रुक गये । केवल इतना ही बोले, “तुम सब लोग चुप रहो | मैं अनुभव कर रहा हूँ कि बहुत से नर-तारियों के जीवन एवं चेतना के साथ जड़ित होकर मैं स्वयं जापान के समुद्र में डूब कर मर रहा हूँ । ‘ सब लोग भय एवं विस्मय से स्तव्ध हो गये । कुछ क्षण बीतने पर देखा गया योभिराज धीरे-धीरे पुनः स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त हो रहे हैं । दूसरे दिन शिष्यों ने समाचार पत्र में पढ़ा–एक जापानगामी यात्री-जहाज समुद्र के किन;रे आकर डूब गया। इस दुर्घटना के कारण कितने ही यात्री मर गये। सब लोगों ने अनुमान किया, इस डूबते हुए सामुद्रिक जहाज के यात्रियों का आर्त्तताद कल योगिरांज की अंतर- सत्ता पर अकस्मात् प्रतिफलित हो उठा था। सब जीवों एवं भूतों का जो अस्तित्व महाचंतन्य में अनस्यूत है, योगिराण के साथ उसी का समन्वय हो गया है। इस अलौकिक घटना केःद्वारा योगिराज ने अपने शिष्यों के बीच उस दिन इसी सत्य को स्पष्ट कुए देना चाहा था। योगिवर श्यामाचरण द्वारा प्रचारित योग-साधना में कभी साधक को लौकिक कम से च्युत होने के लिए नहीं कहा गया । उनके गुरुदेव का आदेश था कि गृहस्थ-जीवन के क्षेत्र में ही वे योग-साधन का बीज वपन करें। इसीलिए प्रायः देखा जाता कि योगिराज के संमीप आकर उनके गृहस्थ शिष्प्गण जब साधन-मार्ग के बाधा-विघ्नों की चर्चा करते तब वे हँसकर उनको उड़ा देते। समय का क्षभाव, जीवन सग्राम की तीब्रता-इसी प्रकार की अन्य असुविधाओं की बात वे कभी मानते के लिए तैयार नहीं होते। गृहस्थाश्रम में रहकर दीर्घ काल तक नौकरी करते हुए वे स्वयं इस प्रकार के जीवन में योग- साधना का आदर्श दिखा गये हैं। स्त्री-पुत्र के भरण-पोषण से लेकर वाराणसी में जन-कल्याण कर शिक्षण संस्था की स्थापना इत्यादि कोई लौकिक कार्य ऐसा नहीं था जिसकी उन्होंने उपेक्षा की हो । इन सब विषयों में उनकी कर्म तत्परता में कमी कोई भो त्रुटि नहीं देखी गयी। वर्त्तमान युग के परिवेश में गृहेस्थ्य जीवत को अक्षुण्ण रख कर गुप्त रूप से योग-साधन करने का उपदेश वे सब लोगों को दिया करते थे। उनके द्वारा निर्दिष्ट साधन-मार्ग पर चलकर कितने ही लोगों ने अपूर्व योगशक्ति प्राप्त की और सम।|ज के विभिन्न स्तरों के न मालूम कितने नीरव साधकों ने अपने जीवन को धन्य बनाया। योगिराज के साधन-मार्ग की एक और विशेषता थी। वे किसी को स्वधर्म का परित्याग करने नहीं देते थे चाहे जिस धर्म या जिस वर्ग का साधक हो, उनके योग-साधन का आश्रय ग्रहण करु सकता था। इसलिए किसी को अपने आया5 रित धर्मंया सामाजिक आचार-विचार का परित्याग करना नहीं पड़ता था। आध्यात्मिक जीवन के पथ-प्रदर्शक को भूमिका ग्रहण करके ही वे संतुष्ट हो जाते थे।
योगिवर श्यामाचरण के आचार्ग जीवन की समाप्ति अब क्रमश: सन्तिकट होती जा रही थी। महाप्रयाण के प्रायः छह मास पूर्व अपनी पत्नी काशीमणि देवी को एक दिन बुलाकर उन्होंने कहा, देखो, मेरे शरीर त्याग का समय अब निकटवर्त्ती हो रहा है। तुम लोग मेरे लिए शोक नहीं करना।” अपने कई अंतरंग भक्तों को भी उन्होंने दो-तीन मास पूर्व अपने आसन्न देह-त्याग की बात कही थी । इसके बाद वे एक विषाक्त घाव से पीड़ित हुए और इस रोग द्वारा ही अंत में उनके नश्वर शरीर का अवसान हुआ। योगिराज के देहावसन के पूर्व उनके एक शिष्य स्वामी प्रणवानंद जी काशी से बाहर रह रहे थे। गुरुदेव की अंतिम अवस्था का हाल सुनकर वे अत्यंत उद्विग्न हो उठे । व्यस्त होकर काशी की यात्रा के लिए तत्पर होने लगे। इसी समय योगिराज की एक अलोक़िक मूर्त्ति उनके सामने आविभूत हुई। मूर्ति ने उससे कहा, “प्रणवानंद काशी जाने के लिए इतना व्यस्त क्यों हो रहे हो ? वहाँ तुम मुझे नहीं पा सकोगे। तुम्हारे वहाँ पहुँचने के पूर्व ही मेरा देहांत हो जायगा ।” शिष्य प्रणवानंद शोक-विह्लल होकर रोने लगे। कृपामय योगिराज ने उन्हें अभयदान देते हुए कहा, “यह क्या ? भय किस बात का ? रोते क्यों हो ? मैं तो बराबर तुम्हारे साथ रहा हूँ। देह त्याग करने पर भी सद्गुरु की सत्ता तुम लोगों को मिलती रहेगी – जब आवश्यकता होगी, मिलेगी ।” योगी श्यामाचरण के एक दूसरे शिष्य स्वामी केशवानन्दजी ने इस समय की एक अलौकिक घटना का वर्णन किया है। गुरुदेव के तिरोधान के कई दिन पूर्व एक दिन वे (केशवानंद) हरिद्वार की कुटिया में बैठे हुए थे। अकस्मात् योगी श्यामाचरण की ज्योतिर्मंय मूर्ति उनके सामने उदभासित हो उठी। दिव्य मूत्ति उनसे कहने लगी, “वत्स, तुम शीघ्र चले आओ।” इतना कहने के साथ- साथ वह मूृर्त्ति अदृश्य हो गयी। केशवानन्द भविलम्ब काञ्नी पहुंच गये । वहां देखा, गुरुदेव के लीला-संवरण में अब देर नहीं है। सेवानिष्ठ भक्त शिष्यगण उन्हें दिन-रात घेरे रहते थे । १८६५ ई० की २६ सितंबर। योगिराज श्यामाचरण के कक्ष में उनके कतिपय अंतरंग भक्त बेठे हुए हैं। अस्वस्थ अवस्था में ही वे गीता के कई श्लोकों की धीरे-धीरे व्याख्या कर रहे थे। कुछ क्षणों के बाद सहसा शिष्यों की ओर देखते हुए शांत स्वर में बोले, “तभी तो, मुझे इस बार अपने स्थान को लौट जाना होगा ।”
शोक अभिभूत शिष्यों एवं भक्तों की साश्रु दृष्टि के सम्मुख ही धीरे-धीरे पद्मासन लगा कर बैठे। इस अवस्था में ही समाधिमग्न योगी ने महाप्रयाण किया । पूर्ण समारोह के साथ योगिवर श्यामाचरण के नश्वर शरीर को गंगा-तट मणिकरणिका घाट पर भस्मीभूत किया गया। गुरु के चिर वियोग में उनके भक्तगण अधीर होकर कंऋ्दन कर रहे थे। ज्योतिमय लोक के उस पार से भी विदेही योगिराज को इस समय अपनी अलोकिक लीला का विस्तार करते देखा गया। एक ही समय में भारत के विभिन्न स्थानों में तोन विशिष्ट शिष्यों ने अपने गुरुदेव की दिव्य मूत्ति को प्रत्यक्ष किया। जीवन एवं मृत्यु के दुरघट व्यवधान को दूर करके शक्तिधर महायोगी इसी प्रकार अमृतलोक के विस्मयकर चित्र अपने आत्मीय जनों के समक्ष उद्घाटित कर गये । द्रोगगिरि की एक पर्वत-गुहा में, एक अलौकिक लीला के बीच बाबाजी महाराज की योग-साधना का बीज रोपा गया, उसमें शक्ति का संचार किया गया। उन्हीं के उत्तर साधक के रूप में समाज एवं गृहेस्थ्य-जीवन के स्तर-स्तर में योगिराज श्यामाचरण ने उक्त बीज को विस्तारित कर दिया। ईश्वर-निर्दिष्ट महावृत का उनके माध्यम से उद्यापन किया गया।