तेजस अशोक भारती
भारत में सती प्रथा कभी थी ही नहीं। रामायण / महाभारत जैसे ग्रन्थ कौशल्या, कैकेई, सुमित्रा, मंदोदरी, तारा, सत्यवती, अम्बिका, अम्बालिका, कुंती, उत्तरा, दुर्गावती, अहिल्याबाई, लक्ष्मीबाई, आदि जैसी विधवाओं की गाथाओं से भरे हुए हैं लेकिन किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में उनके द्वारा सति हो जाने का कोई उल्लेख नहीं है।
यह प्रथा भारत में इस्लामी आतंकवाद के बाद शुरू हुई थी। ये बात अलग है कि बाद में कुछ लालचियों ने अपने भाइयों की सम्पत्ति को हथियाने के लिए अपनी भाभियों की हत्या इसको प्रथा बनाकर की थी।
इस्लामी अत्याचारियों द्वारा पुरुषों को मारने के बाद उनकी स्त्रियों से दुराचार किया जाता था, इसीलिये स्वाभिमानी हिन्दू स्त्रियों ने अपने पति के हत्यारों के हाथो इज्जत गंवाने के बजाय अपनी जान देना बेहतर समझा था।
भारत में जो लोग इस्लाम का झंडा बुलंद किये घूमते हैं, वो ज्यादातर उन बेबस महिलाओं के ही वंशज हैं जिनके पति की हत्या कर महिला को जबरन हरम में डाल दिया गया था। इनको तो खुद अपने पूर्वजों पर हुए अत्याचार का प्रतिकार करना चाहिए था, लेकिन आज वही वंशज अपने पूर्वजो के हत्यारो की प्रशंसा करने मे लगे हैं। कई तो अपने पूर्वजो को पूर्वज ही नही मानते – चाहे वह माता की ओर से हो या कि पिता की ओर से हो। भारत के हिन्दूऔ पर मुस्लिमो का आक्रमण और हिन्दूऔ की स्त्रियो को आपस मे बांट कर अपने हरम मे डालना कोई झूठी बात नही, बल्कि इतिहास का एक हिस्सा है। इस बात को झुठलाने से इतिहास बदल नही जाता।
सेकुलर बुद्धिजीवी “सतीप्रथा” को हिन्दू समाज की कुरीति बताते हैं जबकि यह प्राचीन प्रथा थी ही नहीं। रामायण में केवल मेघनाथ की पत्नी सुलोचना का और महाभारत में पांडू की दूसरी पत्नी माद्री के आत्मदाह का प्रसंग है। इन दोनो को भी किसी ने किसी प्रथा के तहत बाध्य नहीं किया था बल्कि पति के वियोंग में उन्होने आत्मदाह किया था। अगर इसे प्रथा भी माना जाए तो यह आर्य संस्कृति का हिस्सा नहीं थी।
चित्तौड़गढ़ के राजा राणा रतन सेन की रानी “महारानी पद्मावती” का जौहर विश्व में भारतीय नारी के स्वाभिमान की सबसे प्रसिद्ध घटना है। ऐय्यास और जालिम राजा अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मावती को पाने के लिए चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी थी। राजपूतों ने उसका बहादुरी से सामना किया। हार हो जाने पर रानी पद्मावती एवं सभी स्त्रीयों ने अत्याचारियों के हाथो इज्ज़त गंवाने के बजाय सामूहिक आत्मदाह कर लिया था। जौहर /सती को सर्वाधिक सम्मान इसी घटना के कारण दिया जाता है।
चित्तौड़गढ़ जोकि जौहर (सति) के लिए सर्वाधिक विख्यात है उसकी महारानी कर्णावती ने भी अपने पति राणा सांगा की मृत्यु के समय (1528) में जौहर नहीं किया था, बल्कि राज्य को संभाला था। महारानी कर्णावती ने 7 साल बाद 1535 में बहादुर शाह के हाथो चित्तौड़ की हार होने पर, उससे अपनी इज्ज़त बचाने की खातिर आत्मदाह किया था।
औरंगजेब से जाटों की लड़ाई के समय तो जाट स्त्रियों ने युद्ध में जाने से पहले खुद अपने पति से कहा था कि उनकी गर्दन काटकर जाएँ।
गोंडवाना की रानी दुर्गावती ने भी अपने पति की मृत्यु के बाद 15 बर्षों तक शासन किया था। दुर्गावती को अपने हरम में डालने की खातिर जालिम मुग़ल शासक अकबर ने गोंडवाना पर चढ़ाई कर दी थी। रानी दुर्गावती ने उसका बहादुरी से सामना किया और एक बार मुग़ल सेना को भागने पर मजबूर कर दिया था। दूसरी लड़ाई में जब दुर्गावती की हार हुई तो उसने भी अकबर के हाथ पकडे जाने के बजाय खुद अपने सीने में खंजर मारकर आत्महत्या कर ली थी।
जो स्त्रियाँ अपनी जान देने का साहस नहीं कर सकी उनको मुगलों के हरम में रहना पडा। मुग़ल राजाओं से विधिवत निकाह करने वाली औरतों के बच्चो को शहजादा और हरम की स्त्रियों से पैदा हुए बच्चो को हरामी कहा जाता था और उन सभी को इस्लाम को ही मानना पड़ता था। यह है भारत मे इस्लाम का इतिहास ! जिनके घर की औरते रोज ही इधर-उधर मुंह मारती फिरती हों, उन्हें कभी समझ नहीं आ सकता कि अपने पति के हत्यारों से अपनी इज्ज़त बचाने के लिए कोई स्वाभिमानी महिला आत्मदाह क्यों कर लेती थी।
जिन माता “सती” के नाम पर, पति की खातिर आत्मदाह करने वाली स्त्री को सती कहा जाता है उन माता सती ने भी अपने पति के जीते जी ही आत्मदाह किया था। सती शिव पत्नी “सती” द्वारा अपने पति का अपमान बर्दास्त नहीं करना और इसके लिए अपने पिता के यज्ञ को विध्वंस करने के लिए आत्मदाह करना, पति के प्रति “सती” के समर्पण की पराकाष्ठ माना गया था।
इसीलिये पतिव्रता स्त्री को सती कहा जाता है। जीवित स्त्रियाँ भी सती कहलाई जाती रही है। “सती” का मतलब होता है: अपने पति को पूर्ण समर्पित पतिव्रता स्त्री। सती अनुसूइया, सती सीता, सती सावित्री, इत्यादि दुनिया की सबसे “सुविख्यात सती” हैं और इनमें से किसी ने भी आत्मदाह नही किया था।
हमें गर्व है भारत की उन महान सती स्त्रियों पर जो हर तरह से असहाय हो जाने के बाद, अपने पति के हत्यारों से, अपनी इज्ज़त बचाने की खातिर अपनी जान दे दिया करती थीं।
1947 में भारत विभाजन के समय आज के पाकिस्तान में उस समय बड़े पैमाने पर हिन्दुओं पर भयंकर अत्याचार, हत्याएं, बलात्कार हुए, उस समय भी बहुत से क्षत्रिय परिवारों की महिलाओं और कन्याओं ने मुस्लिम आतंकियों के हाथ में पड़ने के स्थान पर अपने आपको कुओं में कूद कर मरना अधिक श्रेष्ठ माना।
मेरे दादाजी ने दो घटनाओं का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने लिखा है कि जब पूरा कुआँ महिलाओं से भर गया तब बाकी बची महिलाएं अपने भाइयों और पति देवर आदि से विनती करती है कि उनकी गर्दन काट कर ही आप जिहादी भीड़ का सामना करें। इन दर्दनाक घटनाऔ का आंखो – देखा वर्णन लाहोर के एक प्रोफेसर ने अपनी 1950 मे छपी इस पुस्तक मे किया है (यह पुस्तक अंग्रेजी मे है):