Quantcast
Channel: Indian People's Congress
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1112

भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी के विचार: एक आध्यात्मिक विश्व क्रान्ति की जरूरत !

$
0
0

यह दस्तावेज पहली बार 4 मई 2014 को प्रकाशित हुआ था। 23 मार्च 2019 को पुनः प्रकाशित:

भारत माता के ऐसे बहुत सारे सपूत थे जो इस देश की आज़ादी की खातिर फांसी के फंदे पर खुशी से झूल गए, अंग्रेजों की बंदूकों की गोलियां खाई , उनकी जेलों में रहे और अकथनीय कष्ट और प्रताड़नाएं सही। उस समय के भारत वासी उनको गर्व से क्रांतिकारी कहते थे और अंग्रेज उनको आतंकवादी कहते थे। उनका इस देश के इतिहास में कहीं नाम दर्ज नहीं है। यह तो सच्चाई का एक पक्ष है।

एक दूसरा भी पक्ष है। वे क्रांतिकारी भावना के आवेश में आकर अंग्रेजों के खिलाफ हथियार नहीं उठाते थे – उनके विचार हर पैमाने पर परिपक़्व और यथार्थ के बहुत करीब थे। सच्चाई तो यह है कि उनके विचार उनकी उम्र के लिहाज से बहुत आगे थे – भगत सिंह, चंद्र शेखर आज़ाद और उनके तमाम साथियों की उम्र 24 – 25 साल से अधिक नहीं थी।  यह उम्र खेलने खाने और मौज मस्ती करने की होती है, लेकिन ये क्रांतिकारी गजब के विचारक भी थे।  आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भी इन क्रांतिकारियों के विचारों और गतिविधियों का असली महत्त्व केवल अंग्रेज ही भली भांति जानते थे – और उन्होंने भारत को आज़ाद करने का कारण केवल इन्ही क्रांतिकारियों को माना भी है – हम भारतवासी आज भी उनके कार्यों और विचारों को नजरअंदाज करते हैं और यह समझते हैं कि अंग्रेजों ने भारत को केवल सविज्ञा, असहयोग, विदेशी माल के बहिष्कार आदि जैसे आंदोलनो से डर कर आज़ाद कर दिया था।

याद रखने की बात यह है कि इन क्रांतिकारियों के विचार असहनीय दुःख उठा कर, कष्ट – पीड़ा सह कर ही परिपक़्व हुए थे और सच्चाई के इतने करीब पहुंचे थे। उनके ये विचार अंग्रेजों के द्वारा की गई नजरबंदी के सुखद कमरों में आराम से बैठ कर नहीं गढ़े गए थे। ये क्रांतिकारी और इनके विचार दोनों ही इतिहास के पन्नो में कही दब कर खो गए हैं – किसी को भी आज फुर्सत नहीं है कि यह जाना जाए कि आग में तपे हुए इन क्रांतिकारियों ने भारत के बारे में क्या सोचा था। बहुत से मार्क्सवादी और वामपंथी लोग केवल भगत सिंह के लिखे पत्रों का हवाला दे कर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि ये क्रांतिकारी वामपंथी ही थे।  कई लोग चंद्र शेखर आज़ाद के करीबी साथी यशपाल का भी उदाहरण देते है जोकि बाद में मशहूर वामपंथी लेखक बन गया था।

लेकिन लोगों को यह पता नहीं है कि चंद्र शेखर आज़ाद समेत लगभग सभी क्रांतिकारी आध्यत्मिक, ईश्वर विश्वासी और मृत्यु को जीवन का अंत नहीं मानने वाले लोग थे। इसी सन्दर्भ में , एक बार तो बात यहाँ तक पहुंची कि यशपाल को, एक दूसरे दिवंगत क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा (जो लाहौर में बम परीक्षण करते हुए दुर्घटना वश मृत्यु को प्राप्त हो गए थे ) की विधवा पत्नी – दुर्गा भाभी – को भगा ले जाने के जुर्म में गोली मार देने की सजा चंद्र शेखर आज़ाद की अध्यक्षता में कुर्सियां बाग़ में हुई मीटिंग में दी गयी थे – हालाँकि कुछ कारणों से यशपाल बच गए थे। इस तरह का बर्ताव वामपंथियों की नजर में सही हो सकता था, लेकिन सभी क्रांतिकारी इसे अति गंभीर अपराध मानते थे। आज उन क्रांतिकारियों के भारत के बारे में विचार ढूंढ पाना लगभग असंभव काम है।

जैसा कि भगत सिंह के लिखे पत्रों से पता चलता है, “हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन तथा हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” से जुड़े क्रांतिकारियों में 1927 के आस पास “मार्क्सवाद, कम्युनिज्म और सोशलिज्म” का असर पड़ना शुरू हो गया था और इसी असर के कारण “हिंदुस्तान  रिपब्लिकन एसोसिएशन” का नाम बदल कर “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ” किया गया था। भगत सिंह को जब जेलर फांसी देने के लिए ले जाने के लिए आया तो भगत सिंह उस समय रूस के क्रन्तिकारी कम्युनिस्ट नेता “लेनिन” की पुस्तक पढ़ रहे थे और भगत सिंह ने जेलर को कहा, “ज़रा ठहरो, पहले एक क्रन्तिकारी को दूसरे क्रन्तिकारी से मिल लेने दो!”

मार्क्सवाद का यही असर, आज़ादी के बाद भी उन क्रांतिकारियों पर बना रहा जो ज़िंदा बच गए थे। यह इसी मार्क्सवाद का असर था कि आज़ादी के बाद यशपाल एक कम्युनिस्ट लेखक के रूप में मशहूर भी हुए।  लेकिन यशपाल या इसी तरह के दूसरे कम्युनिस्ट क्रन्तिकारी लेखकों या नेताओं ने कभी भी मार्क्सवादी दर्शन की अवधारणाओं की गहराई से जाँच पड़ताल नहीं की थी। यह बौद्धिक काम बहुत मुश्किल भी था और लोकप्रिय भी नहीं था। पूरी दुनिया में उस समय सोवियत यूनियन की विचारधारा का दबदबा था और भारत में भी जवाहर लाल नेहरू से इंदिरा गाँधी तक सत्ताधारी सोशलिज्म और कम्युनिज्म की चकाचौंध से प्रभावित थे।

ऐसे में, कुछ क्रन्तिकारी फिर भी थे जिन्होंने “मार्क्सवाद, सोशलिज्म और कम्युनिज्म” का गहराई से अध्ययन किया और उनकी दार्शनिक धारणाओं के खोखलेपन को समझा और अपने स्तर पर उजागर भी किया। लेकिन ऐसे क्रांतिकारियों  को ढूंढ पाना और उनके विचारों को इकठ्ठा करना लगभग नामुमकिन काम है। ऐसे ही एक क्रन्तिकारी बाबू रामचरण सिंह थे। सौभाग्य से, इस पोस्ट के लेखक को बाबू रामचरण सिंह के विचारों का हिंदी में टाइप किया हुआ एक लेख हाथ लग गया, जो उन्होंने अपनी 1976 में हुई मृत्यु से कुछ पहले लिखा था – जो इस इंटरनेट युग में यहाँ यथावत प्रकाशित किया जा रहा है।  ये बाबू रामचरण सिंह कौन थे, ये आप यहाँ अंग्रेजी में पढ़ सकते हैं।

इस लेख के आरम्भ और अंत के कुछ पृष्ठ खो गए हैं, लेकिन जो कुछ भी मिला है और यहाँ दिया जा रहा है उससे उनके विचार स्पष्ट हो गए हैं। वह भारत को एक आध्यत्मिक शक्ति के विश्व व्यापी बौद्धिक प्रकाश पुंज के रूप में देखते थे। उनकी नज़र में, वाम पंथ की दार्शनिक धारणाएं, आध्यत्मिक दार्शनिक धारणाओं के मुकाबले में, बहुत ही बौनी और औच्छी हैं।  उनके इस लेख को पढ़ने से मालूम होता है कि वह अंग्रेजों के खिलाफ मार – काट करने वाले एक क्रांतिकारी भर ही नहीं थे, बल्कि एक उच्च बौद्धिक विचारक भी थे। इस लेख को हम चार भागों में बाँट रहे हैं। पहला भाग है – भौतिकवादी नास्तिक विचारों का विश्लेषण; दूसरा भाग है – भारत का सर्वांग दर्शन; तीसरा भाग है – भारत का रास्ता। चौथा भाग है – क्या करें ?

प्रसंगवश, यहाँ यह कहना भी अनुचित न होगा कि वर्तमान समय के सन्दर्भ में, इस क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी के विचारों के दृष्टिकोण से, भारत का उदय एक आध्यात्मिक ताकत के रूप में ही होना चाहिए और यह भी कि इस कार्य को सफलता की मंजिल तक ले जाने के लिए भारत का नेतृत्व केवल श्री नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं जो इस काम में लगे हुए हैं। (यह लेख क्रमशः कई बार में पूरा की जायेगा )

लेख:

भाग – 1: भौतिकवादी नास्तिक विचारों का विश्लेषण 

…….. (पृष्ठ संख्या  1 से यहाँ तक लेख की सामग्री नष्ट हो गई) …… को मान्यता का एक उदाहरण भी प्रस्तुत किया है जैसे बॉयल का गैस का दाब का सिद्धांत।

खैर कोई भी मार्क्सवादी क्रांतिकारी इस पर ध्यान नहीं देता , और आखिरकार इस अंध विश्वाश का परिणाम नक्सलपंथी राजनैतिक पागलपन में प्रतिफलित हुआ।  वास्तव में मानव विचारों के सम्बन्ध में श्री अरविन्द का निम्नलिखित कथन ही युक्तियुक्त है :-

“कोई भी मत या सिद्धांत न तो सत्य होता है और न असत्य ही , वह तो उपयोगी होता है या अनुपयोगी हो जाता है क्योंकि मत या सिद्धांत काल की सृष्टि है और काल नाशवान है , काल परिवर्तन होने से सिद्धांत पुराने और अनुपयोगी हो जाते हैं और उनकी जगह नए सिद्धांत ले लेते हैं। और इसी प्रकार विचारों का विकास चलता रहता है। ”

हमारे देश के क्रांतिकारियों का सूत्रपात बंगाल के विप्लव दल से होता है – क्योंकि पहिले विदेशी शासक बंगाल में जमे इसीलिए वहीँ क्रांतिकारियों का सबसे पहिले सूत्रपात हुआ। इन क्रांतिकारियों को श्री राम कृष्ण परम हंस, विवेकानंद और श्री अरविन्द से प्रेरणा मिली पंजाब , यू.  पी. और महाराष्ट्र के क्रांतिकारियों को आर्य समाज और महर्षि दयानन्द से प्रेरणा मिली। जिन लोगों ने क्रांति की पहली शिक्षा ग्रहण की वह इन संतों से प्रभावित थे – वह कितने प्रभावित थे यह इसी से सिद्ध हो जाता है कि सन 1924 तक भारत की क्रन्तिकारी पार्टी में काली की पूजा होती थी – माँ भगवती दुर्गा को भारत माता को राष्ट्रिय चेतना का प्रतिनिधि माना जाता था – और यह मान्यता कोई कल्पना या ख्याल पुलाव मात्र नहीं माना था बल्कि उन क्रांतिकारियों का यह द्रढ विश्वास था कि भारत माता को एक सुपर चेतना हमारे देश के खेतों में , पहाड़ों में नदियों में और घाटियों में फैली हुई है और निवास करती है – जो हमारे देश के जन समूह की विकास की दिशा निर्धारित करती है, उन्हें प्रेरित करती है और संचालित करती है। यह क्रांतिकारी हमारे राष्ट्र की परम्पराओं के अनुसार हमारी संस्कृति के अनुसार सही मार्ग पर थे – यदि द्वंदात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद का दर्शन हमारे देश के क्रांतिकारियों का वेद न बन जाता तो हमारे देश में भी उनकी आर्थिक आवश्यकताओं के अनुसार और हमारे विकास की दिशा के अनुकूल एक राजनैतिक दर्शन का विकास हो जाता और आज यह राजनैतिक क्षेत्र की अराजकता और अवसरवाद , नैतिक अध पतन की पराकाश्ठा का प्रदर्शन न होता – लेकिन ऐसा होना अनिवार्य था इसे रोका नहीं जा सकता था – क्योंकि मार्क्सवाद भी मानव विकास के एक आवश्यक पक्ष की अभिव्यक्ति करता है।  कुल मानव विकास का उसे दर्शन बताना एक अतिश्योक्ति है यह केवल मानव विकास के एक पक्ष के विकास का राजनैतिक दर्शन है।

3 – मानव विकास के सम्बन्ध में दो सिद्धांत: यहाँ पर सबसे पहले यह प्रश्न उपस्थित होता है कि  क्या विकास को स्वत स्फूर्त प्रक्रिया के लिए किसी दर्शन विज्ञानं की आवश्यकता है ? क्योंकि विकास तो होगा है चाहे उसका कोई विज्ञान हो या न हो, क्योंकि क्रम विकास विश्व की स्वाभाविक प्रक्रिया है।  लेकिन विज्ञानं को , मानव जाति से सम्बद्ध दूसरे विषयों में जैसी आवश्यकता है ऐसी ही आवश्यकता उसे विकास के विषय में भी (विज्ञान को) है। सब जगह विज्ञान की यही भूमिका है कि हम लक्ष्य – परक हो कर अपने लक्ष्य की ओर  आगे बढ़ सकते हैं – और मार्ग के अवरोधों को हटा सकते हैं।  विज्ञान भूल से बचाता है और लक्ष्य – प्राप्ति के समय को कम करता है।  हरेक राजनैतिक पार्टी  को विषय – वस्तु समाज शास्त्र होता है क्योंकि राजनैतिक पार्टियां सामाजिक इतिहास में अपनी नेतृत्व कारी भूमिका निबाहना चाहते हैं और सामाजिक इतिहास की विषय – वस्तु ही अंततोगत्वा मानव विकास के युगों का वर्णन करना होता है।

तो फिर , इस सम्बन्ध में अब तक विश्व में प्राप्त दो ही दृष्टिकोण उपलब्ध हैं।  1  – द्वंदात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद और 2  – दूसरा श्री अरविन्द दर्शन में मानव विकास की धारणा, जिनमे पहिला कार्ल मार्क्स का इतिहास का भौतिकवादी दृष्टिकोण है और दूसरा प्राचीन हिन्दू आइडियोलॉजी का क्रियात्मक योग – विज्ञानं पर आधारित योगिराज श्री अरविन्द घोष के मानव विकास से सम्बद्ध विचार हैं।  मार्क्स का दृष्टिकोण भौतिकवादी है जो केवल आर्थिक उत्पादन के विकास से सम्बन्ध रखता है , जिसके द्वारा केवल सामाजिक इतिहास में आर्थिक उत्पादन के विकास के युगों की तशरीह की जा सकती है।  श्री अरविन्द का दृष्टिकोण आध्यात्मवादी है , जिसके द्वारा हम मानव चेतना के विकास अर्थात मनुष्य के मनुष्यत्व के विकास के युगों को सामाजिक इतिहास में समझ सकते हैं।  भारत में बसे मानव समूह के विकास के लिए मार्क्सवाद के मूल विचार को समझना न केवल असंगत होगा बल्कि आवश्यक भी होगा ताकि हम किसी परिणाम पर पहुँच सके क्योंकि मार्क्सवाद भी मनुष्य जाति के आर्थिक विकास का आवश्यक पक्ष है।

मार्क्सवाद का मूल विचार, मानव इतिहास का भौतिक वादी नियम : यह संक्षेप में निम्न प्रकार है – मनुष्यजाति , प्रकृति से अपने जीवन संघर्ष के सिलसिले में खेतों कारखानों खानों में प्रकृति से अपने संघर्ष  चलाने के लिए , एक और तो श्रम अस्त्रों का उत्पादन , निर्माण और पुनरुत्पादन जारी रखती है जिससे उसे भोजन की आवश्यकताओं की प्राप्ति होती है और मनुष्यजाति जीवित रहती है – दूसरी तरफ परिवार के किसी रूप में बांध कर वह मनुष्यों का उत्पादन जारी रखती है जिससे मानव नस्ल आगे चलती है और बनी रहती है। प्रकृति के साथ संघर्ष में मनुष्य अकेला अकेला या अलग अलग संघर्ष नहीं करता बल्कि वह समूह बनाकर और परस्पर सहयोग के किसी रिश्ते में बंधकर वह प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करता है।  अब यह दो प्रकार के उत्पादन सम्बन्ध – आर्थिक और परिवार में पुरुष और स्त्री के बीच के यौन सम्बन्ध – मिलकर ही मनुष्य जाति  की राजनैतिक , आर्थिक और सांस्कृतिक ईमारत क मूल स्ट्रक्चर होता है।  जब यह ढांचा बदल जाता है  तो यह बाह्य ईमारत भी बदल जाती है।

अब यह ढाँचा बदलता क्यों है ? इस पर मार्क्स ने चिंतन और मनन किया।  उनका कहना यह है कि मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध अपने संघर्ष में आसानी और विजय पक्की करने के लिए लगातार अपने श्रम – अस्त्रों में सुधार और उन्नति करता रहता है – जिससे मनुष्यजाति की उत्पादक शक्ति में विकास और उन्नति होती रहती है जिसका स्वतः यह परिणाम होता है कि उसके उत्पादन सम्बन्ध , उसकी उत्पादक शक्तियों की क्षमता से पिछड़  जाते हैं – वह पीछे रह जाते हैं।  मार्क्सवाद के अनुसार सामाजिक – क्रांतियों अथवा मनुष्यजाति की क्रांतियों का यही भौतिक आधार है।  उत्पादन सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों की क्षमता के अनुकूल होना चाहते हैं उन्हें शक्तिधारी शासक वर्ग जबरदस्ती कायम रखने की कोशिश करता है क्योंकि यह उसके स्वार्थों के अनुकूल होते हैं उन्हें जबर्दस्ती बदला जाता है।  मार्क्सवाद के अनुसार यही क्रांति है , क्योंकि मानव समाज का यह स्ट्रक्चर है।  जब यह बदल जाता है तो इसके ऊपर खड़ी राजनैतिक आर्थिक और सांस्कृतिक ईमारत भी बदल जाती है।  अगर उत्पादन सम्बन्ध नहीं बदले जाते हैं तो समाज की उत्पादन शक्तियों का नाश होने लगता है और उसमे रूकावट और संकट आने लगते हैं।  इसलिए उनका बदलना समाज के हित में होता है और यह मांग समाज की मांग हो जाती है।  संक्षेप में , इसे ही मानव इतिहास में भौतिकवाद का नियम अथवा मानव इतिहास में भौतिक वाद की भूमिका कहते हैं।

जैसे प्रकृति …..  (बकाया टाइप होना है। पेज 7   )

भाग दो – भारत का दर्शन 

मानव विकास सम्बन्धी मेरे विचार श्री अरविन्द के मानव विकास से सम्बंधित विचारों पर ही आधारित हैं।  आगे मैं संक्षेप में वर्णाश्रम के विचार की वैज्ञानिकता पर प्रकाश इन्ही विचारों की रोशनी में डालूंगा।

संक्षेप में , विश्व का वह मूल तत्व , जिससे कि सारे विश्व  रचना हुई है, उसके तीन पक्ष हैं।  चेतना की उच्चतम मंजिल में योगियों को वह तीन पक्ष नीचे की नन्जिलों के सामान परस्पर विरोधी और भिन्न दिखाई नहीं पड़ते हैं बल्कि वहां वह एक ही सदवस्तु के तीन पक्ष हैं।  सत्ता , चेतना और आनन्द , चेतना की अतिमानस की स्टेज में सत्ता , सत्ता से अधिक चेतना अनुभव होती है और चेतना , चेतना से अधिक आनन्द है।  भौतिक जगत में ऊपर लिखित परम तत्व के यह तीन पक्ष , तीन मुख्य प्रवत्तियों के रूप में अपने मूल स्वाभाव की पुनः प्राप्ति के लिए विकास में संघर्ष रत्त है।  इन तीन प्रवत्तियों के अतिरिक्त , अर्थात सत्ता , चेतना , आनन्द की प्रवत्तियों के अतिरिक्त एक चौथी अवस्था और है जहाँ  प्रवत्ति स्पस्ट नहीं है जिसे हम किसी भी प्रवित्ति की तरफ बढ़ने से पहली अवस्था अथवा कच्चा माल कह सकते हैं।  ….. (बकाया टाइप होना है। पेज 18 )

भाग तीन – भारत का रास्ता 

मैं अपने राजनैतिक जीवन के कुल अध्ययन , मनन  और चिन्तन से जिसमे  श्री अरविन्द साहित्य का अध्ययन भी शामिल है इस परिणाम पर पहुंचा हूँ कि किसी भी राजनैतिक पार्टी की विजय और सफलता की कुंजी उसका मानव विकास के नियमों का ज्ञान और उस ज्ञान को अपनी राजनैतिक कार्यवाहियों में लागू करना है।  क्योंकि “विकास ” विश्व विधान की स्वाभाविक प्रक्रिया है।  विकास मान तत्वों की विजय और सफलता और ह्रास मान तत्वों की पराजय और असफलता विश्व प्रकृति का नोयं है।  इसलिए हर राजनैतिक पार्टी का यही कर्तव्य है कि वह मानव विकास के नियमों का ज्ञान प्राप्त करें। और उन्हें अपनी राजनैतिक कार्यवाहियों में लागू करे और यही उसका राजनैतिक दर्शन हो जाता है।  अब मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ लेकिन मार्क्सवाद से मुझे चिढ़ भी नहीं है।  मैं अरविन्द वादी एक आध्यात्मिक कम्युनिस्ट हूँ और मेरा सिद्धांत और विचार मार्क्स और श्री अरविन्द के समन्वय पर  आधारित है।  मेरा अपना कुछ नहीं है जो कुछ है उसका सारा  श्रेय श्री कार्ल मार्क्स फ्रेड्रिक एंगल्स और श्री अरविन्द और श्री अरविन्द की शिष्या श्री माताजी को है।

मार्क्सवाद में मुझे जो कुछ तथ्य पूर्ण जंचा उसे मैंने अपने विचारों में शामिल कर लिया है वह है उसका ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धांत – वह वास्तव में मानव क्रांतियों का सिद्धांत है , वह केवल आर्थिक उत्पादन पद्धतियों के क्रमशः विकास का सिद्धांत है।  हम जिस द्रष्टिकोण से किसी विषय का विश्लेषण करते हैं अन्त में उत्तर उसी द्रष्टिकोण के अनुकूल आता है।  संसार को देखने का जैसा हमारा चश्मा होता है वैसा ही हमें संसार दिखाई पड़ता है।       …..  (बकाया टाइप होना है। पेज 22  )

भाग 4 – क्या करें ?

जब हम क्रान्तिकारी हैं तो मनुष्य जाति की बुनियादी क्रान्ति का लक्ष्य हमारे समक्ष होना चाहिये।  क्रांतियाँ हमेशा “विकास के अवरोध” दूर करने के लिए जन्म गृहण करती हैं। पर फ़्रांसिसी और रूसी क्रांतियाँ अपने मानवता वादी उदेश्य में तो असफल हो रही हैं।  फ्रांसीसी क्रान्ति मनुष्यजाति में हाबिल बाबिल से बढ़िया भाई चारा स्थापित नहीं कर सकी ((नोट – हाबील हजरत आदम का पुत्र था जिसने अपने भाई कर दी थी) और रूसी क्रांति भी राजसत्ता हीन समाज की स्थापना के अपने वायदे को पूरा नहीं कर सकी। (नोट – चीनी , पूर्वी यूरोप और क्यूबा की क्रांतियां कोई स्वतंत्र क्रांतियाँ नहीं हैं बल्कि यह सब रूसी क्रांति का ही दूसरी राष्ट्र सीमाओं में विस्तार मात्र हैं।  उनकी कोई स्वतंत्र उपलब्धि नहीं है )  श्री लेनिन ने अपनी “राजसत्ता और क्रांति” और “मजदूर क्रान्ति और गद्दार कॉटस्की” में हमें जैसी आशा दिलाई थी वह आशा अब धूल में मिल चुकी है।  राजसत्ता धीरे धीरे मुरझा कर समाप्त होने के बजाये राजसत्ता धीरे धीरे मजबूत हुई है, वर्ग हीन समाज के बजाये वहां एक नया वर्ग उत्पन्न हो गया है, जो एन के वी डी की सहायता से एक क्रूर और निर्मम शासन है। वास्तव में इन क्रांतियों का उद्देश्य मानव विकास के द्रष्टिकोण से वह नहीं था जिसकी घोषणा की गयी थी।  यह वास्तव में भौतिकवादी क्रांतियां थीं और उनका मिशन मानव स्टेज के प्रोसेस को पूरा करना था और इस मकसद में यह क्रांतियाँ सफल रही हैं।  और इसी लिए अब एक आध्यात्मिक क्रांति अजेंडे पर है जो हमें इस बात की समझ प्रदान करती है कि हमारी मनुष्य की परिभाषा गलत थी और हमारा वर्ग विश्लेषण भी गलत था।  असिल समस्या भौतिक प्रकृति पर विजय की इतनी नहीं है जितनी सूक्ष्म प्रकृति पर विजय की थी।  संघर्ष का मुख्य मोर्चा सामाजिक क्षेत्र में इतना नहीं था जितना व्यक्ति के क्षेत्र में था।  समस्या संसार को बदलने की इतनी नहीं थी , वास्तव में मानव चेतना को बदलने की है।  आज …      …. (बकाया टाइप होना है। पेज 28 )

 


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1112

Trending Articles