(नोट : यह इस वेब साइट पर मौजूद “विज़न डॉक्यूमेंट” के चैप्टर १ का सरल हिंदी अनुवाद है )
आओ हम एक महत्वपूर्ण खोज करने के लिए एक बोद्धिक यात्रा पर चलें। यह खोज यात्रा इस बात को जानने के लिए है कि आखिर जीवन की उत्पत्ति क्यों और कैसे हुई, इसका इतिहास क्या है और इस पृथ्वी पर हमारा – मानव जाति का – भविष्य क्या है। यह खोज यात्रा हमारे सामने इस ब्रह्मांड के विकास की एक ऐसी कहानी को रखती है जहां पर हमारी बुद्धि को यह समझ में आ जाता है कि यह वर्तमान विश्व ऐसा क्यों है। ब्रह्मांड की इस गुत्थी को समझ लेने पर हमें एक कर्तव्य बोध होता है कि वतॆमान मे हमें किस तरह का अपना आचरण रखना चाहिए और भविष्य मे होने वाली घटनाओं के बारे में एक अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। जो लोग अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करना चाहते हैं और जिन लोगों को खोज में रुचि है उन सभी लोगों के लिए यह खोज यात्रा बहुत शांति प्रदान करने वाली, अंतरमन को एक सुखद आश्वासन देने वाली और ह्रदय को आनंदित करने वाली है। आओ इस भूमिका के साथ हम अपनी खोज यात्रा पर निकलें।
बहुत समय पहले – ईसा मसीह से लगभग 470 साल पहले – एक समझदार आदमी ने जिसका नाम सुकरात था कहा कि मुझे छोड़कर बाकी सभी लोग मूर्ख हैं। मैं अकेला आदमी ही समझदार हूं। और मैं समझदार इसलिये हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं मूखॆ हूं। आज हम 21वीं शताब्दी में रह रहे हैं और इन शब्दों को कहे हुए लगभग 2500 साल बीत गए हैं। क्या आज भी हम यह कह सकते हैं कि हम समझदार हैं क्योंकि हम जानते हैं कि हम मूर्ख हैं? आओ, हम यह जानने की कोशिश करें कि हम वाक्ई मे ही मूर्ख हैं और समझदार बनें।
उसी समझदार आदमी ने एक बात और कही थी। उसने कहा कि आदमी का आनंद एक जानवर के आनंद से कहीं बेहतर होता है। आदमी का आनंद एक जानवर के आनंद से बेहतर इसलिये होता है क्योंकि आदमी अपने वर्तमान से कभी भी संतुष्ट नहीं रहता और वह उस सब को जानने की कोशिश करता रहता है जो उसे मालूम नहीं है। जबकि जानवर अपने में मस्त रहता है और वतॆमान के अपने अस्तित्व से संतुष्ट रहता है।
आदमी का अंतर्मन हमेशा इस बात का प्यासा रहता है कि उसे वह सब पता चल जाए जो उसे अभी मालूम नहीं है। आदमी के अंदर बहुत गहरे छुपा हुआ है उसका असली वजूद जो उसे लगातार उकसाता रहता है कि वह उस चीज की खोज में और आगे बढ़ें जो उसे मालूम नहीं है। आदमी अनजानी चीजों को जानने की लाखों वषॆ की इसी कोशिश में इस काबिल बन गया है कि वह अपने से सीधे और सपाट सवाल कर सकता है और उनके उत्तर ढूंढ सकता है।
इससे भी ज्यादा महतवपूणे बात यह है कि वह प्रकृति की इस रचना को देखकर उस पर आश्चर्य कर सकता है। इंसान की इस अनोखी काबिलीयत ने ही मानव जाति की सभ्यता को हमेशा ऊंचे से और अधिक ऊंचाई की ओर बढाया है और उसे चकाचोंध पैदा करने वाली उस उँचाई पर पहुंचा दिया है जहां पर यह सभ्यता आज खडी है।
इस दुनिया का वजूद ही बहुत आश्चर्य करने वाला है। इस दुनिया में हर चीज आश्चर्य करने वाली है और इन आश्चर्यों में भी सबसे बड़ा आश्चर्य है: जीवन । और धरती पर जीवन का सिरमौर बने “मानव जीवन” के आश्चर्य का तो ठिकाना ही क्या है!
जब आदमी इन सब चीजों पर गौर करता है तो उनके बारे में गंभीर सवाल उठ खड़े होते हैं। जैसे-जैसे आदमी और समझदार होता जाता है और अधिक सवाल उसके सामने उठ खड़े होते हैं। पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के जीवन के कारवां को नेतृत्व देने का स्थान उसने क्यों और कैसे हड़प लिया है? जहां तक उसे मालूम है, इस असीम ब्रह्मांड में जीवन का यह कारवां अकेले पृथ्वी पर ही क्यों है? पृथ्वी पर जीवन के विकास का यह कारवां किधर जा रहा है? आखिर जीवन का यह कारवाँ कहां पहुंच कर रुकेगा?
ये सब सवाल हमारे सामने उत्तर के लिए उठ खड़े होते हैं। हालांकि ये सब सवाल हमारे सामने मुंह बाए खड़े हैं लेकिन आम तौर पर हम सभी और सारी जिंदगी भर हम खाना कपड़ा जुटाने, आनंद मनाने और छोटी मोटी जरूरतों को पूरा करने में ही लगे रहते हैं। हमारे सारे विचार और कायॆकलाप इन्हीं चीजों पर केंद्रित रहते हैं और हम जीवन भर इन्हीं चीजों की मांग से निर्देशित होते रहते हैं। मानव जाति का अधिकांश भाग इनहीं चीजों मे लगे रह कर लगभग बेहोशी की सी हालत मे अपना जीवन बिता देता है।
इस रहस्यमय विश्व के दरवाजे की एकमात्र गुप्त चाबी है: सवाल करना ! हर सवाल चाहे वह कितना भी मामूली क्यों ना हो यदि ईमानदारी से पूछा जाए और पूरी निशठा से उसका जवाब ढूंढा जाए तो एक खोज बन जाता है। उदाहरण के लिए यदि हम यह पूछे कि यह सूरज ऐसा क्यों है जैसा कि यह है – सदा चमकता रहने वाला और चारों ओर रोशनी बिखेरते रहने वाला – और इस सवाल का जवाब ढूंढे तो हम नाभीकीय फ्यूजन की खोज कर लेंगे। यदि हम यह पूछे कि सेव पेड़ से टूट कर नीचे जमीन की ओर ही क्यों गिरते हैं और ऊपर को क्यों नहीं जाते तो हम गुरुत्वाकर्षण की खोज कर लेते हैं।
इंसान के दिमाग की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह आश्चर्य कर सकता है – आश्चर्य इस बात पर कि यह दुनिया क्यों है और इस तरह की क्यों है जिस तरह कि यह है; आश्चर्य इस बात का कि इन सब चीजों के पीछे क्या रहस्य है; और आश्चर्य इस बात का कि आखिर इस सब रचना के पीछे रहस्य क्या है! इंसान का दिमाग ही अकेला वह पावर-हाउस है जो उसकी तरक्की, सभ्यता और विकास को आगे बढ़ाता है।
धरती पर जीवन के विकास की चोटी पर इंसान बैठा है। मानव खुद अपने से लगातार संघर्ष करके ही पशुओं की दुनिया से और उस दुनिया को बांधने वाले नियमों से ऊपर उठा है। वह अपने अस्तित्व को बचाये रखने की लडाई में ही लगे रहने वाले पशु जगत से आगे अपने दिमाग का विकास करके ही और अपने से सवाल पूछ कर और उनका जवाब ढूंड कर ही पशु जगत से बाहर आया है। उसके पास एक ऐसा दिमाग है जो सवाल कर सकता है, खोजबीन कर सकता है और रहस्यमयी चीजों पर आश्चर्य कर सकता है। इंसान को यही शोभा देता है कि वह जानवर की तरह संतुष्ट न रहे और सवाल करे, आश्चर्य करे और उनके जवाब ढूंढे। एक ऐसी सभ्यता जो इंसान को मजा लूटने को प्रेरित करती हो, जो इंसान को स्वयं में ही संतुष्ट रहने को प्रेरित करती हो, जो इंसान को अपनी इच्छाओं की पूर्ति को ही सर्वोत्तम मानती हो, वह सभ्यता उस मानव जाति की गरिमा और सम्मान से नीचे की चीज है जो (मानव) जाति इस पृथ्वी पर सब तरह के जीवन का नेतृत्व कर रही हो। इंसान को यही शोभा देता है कि वह जानवर की तरह संतुष्ट न रहें और सवाल करें, आश्चर्य करें और उनके जवाब ढूंढे। उसे विकास के पथ पर आगे ही बढना है पीछे नहीं जाना है।
यह मानव गरिमा के अनुरूप ही है कि सवाल करने वाला और जवाब ढूंढने वाला इंसान अपनी जरुरत पूरी करने में ही मस्त रहने से ऊपर उठे और अपने दिमाग को उसी मे लगे रहने की गुलामी से मुक्त करें। उसे मतलबखोर सभ्यता के स्थान पर लक्ष्य को ध्यान में रखने वाली सभ्यता का निर्माण करना चाहिए।
यह मानव के अपने हित में ही है कि वह एक ऐसी सभ्यता का निर्माण करें जो लोगों को फुर्सत का समय उपलब्ध कराये और उन्हें इस बात का बढ़ावा दे कि वे बिना किसी के निजी और स्वार्थी हितों की सेवा किये निष्पक्ष होकर खोजबीन करें। यह भी मानव जाति के हित में ही हैं कि वह नयी सभ्यता ऐसे लोगों की मेहनत को रोजी रोटी की सुरक्षा, सामाजिक मान्यता और सम्मान दिलाए जो खोजबीन करते हों। ऐसी लोगों द्वारा खोज किया गया ज्ञान किसी की निजी सम्पति नहीं होनी चाहिए, बल्कि वह ज्ञान उस सारे समाज और उस समाज की नयी सभ्यता की सार्वजानिक सम्पति होनी चाहिए। आज इंसान विज्ञानं और टेक्नोलॉजी में इतनी तरक्की कर चुका है कि वह सभी को खोजबीन करने के लिए पर्याप्त फुर्सत का समय उपलब्ध आसानी से करा सकता है।
सवाल करने और उनके उत्तर खोजने के लिए दिमाग की मजबूती और दिल की ईमानदारी की जरूरत होती है क्योंकि सवाल करने पर आदमी को केवल अपना ही फायदा सोचने वाली घटिया संस्कृति से ऊपर उठना होता है। आओ, हम खुल कर सवाल करें, मौलिक सवाल करें, खूब सवाल करें और उनके उत्तर खोजें। हमारे चारों तरफ आश्चर्यचकित कर देने वाली बहुत सी चीजें हैं और खोज करने के लिए बहुत से सवाल हैं।
इन सब चीजों के बीच, एक तरफ तो यह विश्व है जो अनंत और रहस्यपूर्ण और एक पहेली की तरह हैं; और इसके दूसरी तरफ एक इंसान है – जो इस विश्व के रहस्य से भी ज्यादा रहस्यपूर्ण है – जोकि इस विश्व के रहस्य को सुलझाने में लगा हुआ है। हम इस भौतिक विश्व को जानने की कोशिश करते हैं और खोज कर लेते हैं आकाश गंगाओं और उनमे स्तिथ सूर्य मंडलों की; ब्लैक होल और बिग बंग के द्वारा इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की; स्पेस और टाइम की डाइमेंशन्स की। दूसरे किनारे पर , हम जीवन को जानने की कोशिश करते हैं और खोज कर लेते हैं जीवन के ब्लू प्रिंट – जेनेटिक कोड की; हम इंसान के ‘मस्तिष्क ” को जानने की कोशिश करते हैं और खोज लेते हैं उसके “चेतन”, “अवचेतन ” और “अचेतन ” भागों को; हम जानने की कोशिश करते हैं कि इंसान के “मस्तिष्क ” से परे क्या है और खोज कर लेते हैं “ई एस पी” (एक्स्ट्रा सेंसरी परसेप्शन), “एन डी ई” (नियर डेथ एक्सपीरियंस), “मृत्यु के बाद जीवन”, “चेतना के स्तर” जोकि इंसान के मस्तिष्क से परे हैं , ईसा मसीह के “गॉड” को , बुद्धा के “निर्वाण” को , स्वामी महावीर के “कैवल्य” को, श्री अरविंद के “दिव्य सत्ता” को, आदि आदि।
उन अनगनित सवालों में, जोकि हम पूछ सकते हैं और जिनका हम उत्तर ढून्ढ सकते हैं, सबसे नैषरगिक और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है : आखिर मैं हूँ कौन ? आज जबकि हमारे पास चकित कर देने वाला विज्ञान है और हम विकास के इतने ऊँचे स्तर पर पहुँच गए हैं , तो हमारे में यह क्षमता होनी ही चाहिए कि हम इस सर्वोत्तम सवाल को पूछें और इसका उत्तर ढूंढें।
लेकिन हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जीने में ही लगे रहते हैं, इस बात को बिलकुल भी जाने बिना कि यह हमारे चारों तरफ फैली यह दुनिया आखिर है क्या ! हमारे दिमाग में इस विचार के लिये कोई स्थान नहीं होता कि वह क्या मशीन है जो “प्रकाश” को पैदा करती है और जिस से जीवन संभव होता है ; यह “गुरुत्वाकर्षण” क्या है जोकि हमें धरती से चिपकाये रखता है और जिसके बिना हम एक कदम रखते ही अंतरिक्ष में फेंक दिए गए होते; या, ये “परमाणु ” क्या हैं जिस से हम बने हैं और जिस पर हमारा स्थाईत्व – टिका रहना – संभव हुआ है !
हम में से – हमारी जाति, मानवजाति जिसे हम विचारशील प्राणी कहते हैं उस में से – केवल बहुत थोड़े से लोग ही ऐसे हैं जो इस सवाल पर अपना कुछ समय देते हों कि यह प्रकृति इस तरह की – जैसी वह है – क्यों है और इस पर आश्चर्य करते हों। या, कि यह ब्रह्मांड आया कहाँ से? क्या यह सदा से ही यहाँ और ऐसा रहा है? क्या कभी समय उलटी दिशा में बहाने लगेगा और कारण से पहले कार्य होने लगेंगे ? क्या मनुष्यों की कोई एक ऐसी अंतिम सीमा है जिस से परे वे नहीं जान सकते ? इस मामले में, बच्चे हम बड़ों से कहीं अधिक कल्पनाशील और सवालों करने और उनके उत्तर ढूंढ ने वाले होते हैं, लेकिन इसी कारण से हम उनको यह कह कर दरकिनार कर देते हैं कि वे तो बच्चे हैं और उनके सवाल हमारे गौर करने वाले नहीं हैं !
यह इंसानों की गरिमा के अनुरूप ही है कि वे सवाल करें; हमें इंसान ही बनना चाहिए, पशु सरीखे नहीं; हमें अपने से सवाल करने चाहिए और पशुओं की तरह अपनी छोटी छोटी जरूरतों की पूर्ती करने में ही नहीं लगे रहना चाहिए।
किसी समझदार आदमी ने बड़ा ही सटीक कहा: “मैं सोचता हूँ कि … इसलिए मैं हूँ” ! हम एक कदम और आगे बढ़ सकते हैं और इसमें जोड़ सकते हैं: “क्योंकि मैं हूँ, इसलिये यह दुनिया भी है “. हाँ, यह दुनिया है जिसे हम सभी देख रहे हैं, इसमें रह रहे हैं और तौल रहे हैं। लेकिन यह विश्व अपने प्रारंभिक विन्दु से कैसे शुरू हुआ ? और, या, यह कभी शुरू हुआ भी था ?
इन सवालों की गहराई को प्रख्यात ब्रिटिश वैज्ञानिक स्टेफेन डब्लू हॉकिंस ने अपनी विख्यात पुस्तक “समय का संक्षिप्त इतिहास ” में बखूबी दर्शाते हैं, जब वह कहते हैं : “इस चीज को सही तरह बताने के लिए कि यह विश्व प्रारम्भ में किस तरह शुरू हुआ होगा, उन नियमों को जानना होगा जोकि समय की शुरुआत पर लागू होते हों। यदि जनरल रिलेटिविटी की क्लासिकल थ्योरी सही है, तो जो सिंगुलरिटी की थेओरम रॉजर और पैनरोज और मैंने साबित की है, उसके मुताबिक शुरुआती समय एक ऐसा विन्दु रहा होगा जहाँ घनत्व (डेंसिटी) अनंत होगा और स्पेस – टाइम का करवेचर (स्थान और समय का झुकाव) अनंत रहा होगा ! ऐसे विन्दु पर हमारे विज्ञानं के वे सभी नियम जो हम जानते हैं टूट जायेंगे। हम यह सोचते होंगे कि उस सिंगुलरिटी के विन्दु पर कुछ नए नियम लागू होते होंगे ,पर ऐसे बदमिजाज विन्दु पर लागू होने वाले नियमों को निर्धारित कर पाना भर ही बहुत कठिन है और हमारे पास निरीक्षण के द्वारा निर्धारण करने का कोई साधन नहीं है जोकि बता सके कि वे नियम कैसे होंगे …. हमारे पास अभी तक भी कोई ऐसी पूर्ण और समरस थ्योरी नहीं है जोकि क्वांटम मेकेनिक्स और ग्रेविटी को मिला कर समझाती हो।
“फिर भी हम इस बारे में काफी हद तक निश्चित हैं कि इस तरह की कंबाइंड थ्योरी (क्वांटम मैकेनिक्स और ग्रेविटी को मिला कर बनी थ्योरी) में कुछ खास बातें होंगी। ….. फेनमैन की “sum over histories” की टेक्निकल दिक्कतों से बचने के लिए, हमें काल्पनिक (imaginary) समय को इस्तेमाल करना होगा। यानि, हमें समय की गणना करने के लिए वास्तविक संख्याओं के स्थान पर काल्पनिक संख्याओं का उपयोग करना होगा। इस तरह की गणना करने से “स्पेस-समय” पर एक दिलचस्प असर होगा : तब, “स्पेस” और “समय” का भेद पूरी तरह से समाप्त हो जायेगा (स्पेस और समय एक ही चीज होगी !!) …. यदि यह विश्व वास्तव में ही इस तरह की क्वांटम (Quantum) स्तिथी में है तो (उपयोग किये गए ) काल्पनिक समय में इस विश्व के इतिहास में कभी भी “सिंगुलरिटी (Singularity) ” नहीं हो सकती !!! ….
“इसका यह अर्थ होगा कि तथाकथित “काल्पनिक” समय ही वास्तव में “असली” समय है, और जिस समय को हम “वास्तविक” समय कहते हैं वह हमारी कोरी कल्पना ही है। “वास्तविक” समय में इस विश्व का “सिंगुलरिटी” पर एक आरंभिक विन्दु होगा और अंत का विन्दु होगा जो स्पेस और समय की सीमा बनाता है और जिस विन्दु पर विज्ञान के नियम टूट जाते हैं। लेकिन “काल्पनिक” समय में सिंगुलरिटी होती ही नहीं (जहाँ स्पेस और समय की सीमा मिलती हो); इसलिए यह हो सकता है कि जिसे हम “काल्पनिक” समय कहते हैं वह ही मौलिक समय हो, और वह जिसे हम “वास्तविक” समय कहते हैं केवल हमारा एक विचार मात्र ही हो जो हमने इस लिए गढ़ लिया है ताकि हम इस विश्व का अपने विचार के अनुसार वर्णन कर सके कि यह ऐसा है !!
“लेकिन इस दृष्टिकोण से जैसा मैंने चैप्टर 1 में बताया है, वैज्ञानिल थ्योरी केवल गणित द्वारा तैयार किया गया एक मॉडल मात्र होता है जो हमारे द्वारा देखी गई चीजों को समझाता है : यह केवल हमारे दिमाग में होता है। इसलिए यह सवाल करना बेमायना है कि: “असली कौन सा है – “असली समय” या “काल्पनिक समय”? इस मामले में केवल यह देखना है कि वर्णन करने में कौन सा अधिक फायदा वाला है।”
हमारे सामने यहां सवाल इस बात का नहीं है कि खरबों पहले हुए बिग बंग के साथ “हमारे समय” की शुरुआत कैसे हुई, बल्कि सवाल इस बात का है कि प्रथम बार कि जब स्पेस और टाइम की सिंगुलरिटी का करवेचर – या घुमाव – अनंत था तो वहां से “समय ” की शुरुआत” क्यों हुई और कैसे हुई।
स्टेफेन हॉकिंस केवल इस समस्या से जूझ रहे हैं – और उसका समाधान भी नहीं पा रहे – कि उस अवस्था से समय की शुरुआत “कैसे” हुई, लेकिन हमारी समस्या यह जानने की है कि प्रथम बार वहां से समय की शुरुआत “क्यों” हुई।
हम बिग बंग से साथ शरू हुए इस “अपने समय” में रह रहे हैं और यदि हम समय में पीछे की तरफ जाएँ तो हम अपने इस समय के शुरुआती विन्दु पर पहुँच जायेंगे। लेकिन यदि हमारे “इस समय” का कोई एक शुरुआती विन्दु था तो क्या इस हमारे इस समय से पहले भी “कोई और समय” का दौर भी रहा था ?
और समय के इस चक्र में ऐसे दौर कितनी बार हुए ? आखिर सबसे पहला दौर शुरू “क्यों” हुआ ? समय के इस चक्र के नियम क्या हैं ? ये सवाल मानव की बुद्धि के लिये सबसे ऊँचे स्तर के हैं। दुर्भाग्य से हम “अपने” इस समय में रह रहे हैं और हम केवल इसी समय के बारे में ही कोई सार्थक चर्चा कर सकते हैं, समय के मूल के बारे मे नही !! लेकिन वह सवाल बरकरार बना रहता है।
ये वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि समय के शुरुआती विन्दु पर – स्पेस और टाइम के सिंगुलरिटी विन्दु पर – पदार्थ का घनत्व अनंत होगा और समय का घुमाव (करवेचर) भी अनंत होग ! पदार्थ के अनंत घनत्व से हम क्या समझते हैं ? समय के अनंत घुमाव या करवेचर से हम क्या समझते हैं ? यानि, स्थान (स्पेस ) और समय (टाइम ) के अनंत घुमाव से हम क्या समझते हैं ? हमारा यह विश्व स्पेस – टाइम के चार आयाम (डायमेंशन ) में मौजूद है; यदि हमारे लिए यह संभव हो कि हम इस विश्व के वजन (सहंति या मास !) को दबाते जाएँ और काम से कमतर स्थान में सिकोड़ते जाएँ तो इसका घनत्व बढ़ता जायेगा। यदि हम ऐसा करें तो हम इसको कितना दबा पाएंगे ?
यदि हम इस विश्व की सहंति को स्थान (स्पेस ) के एक विन्दु पर सिकोड़ सकें तो यह अवस्था सबसे अधिक घनत्व की होगी; पर फिर भी यह अनंत नहीं होगी !! हमें अभी भी अनंत पर पहुंचना है !
यह हाल तो पदार्थ के स्पेस और घनत्व का है ! आओ इसी को समय पर भी लागू करें। यदि हम समय को दबा या सिकोड़ सकें तो एक क्षण ऐसा आएगा जहाँ समस्त समय एक विन्दु में समा जायेगा ; फिर भी यह विन्दु अनंत नहीं है !! हमे अभी भी अनंत विन्दु पर पहुँचना है !
इस तरह,यदि स्पेस और टाइम के चार आयाम (डायमेंशन) वाले इस विश्व को अनंत के विन्दु तक सिकोड़ा जाये तो यह विश्व चारो तरफ से बंद एक विन्दु में समा जायेगा, यदि इसका घुमाव (करवेचर ) पॉजिटिव होगा ; और यह विश्व चारो तरफ से खुला होगा, यदि इसका घुमाव (करवेचर ) नेगेटिव होगा ! क्या हम ऐसे विश्व की कल्पना कर सकते हैं जो बिना स्थान (स्पेस ) और बिना समय (टाइम ) के स्तिथ हो ? ऐसा विश्व अपने आप में एक विरोधाभासी शब्द है ! लेकिन इस ब्रह्माण्ड में विरोधाभाषी चीजें मौजूद हैं।
हमारा विश्व पदार्थ (मैटर ) का बना है। पदार्थ क्या है ? वह सब जो इस विश्व में मौजूद है, मूल रूप में “पदार्थ” ही है और हम कोई भी ऐसी चीज नहीं जानते जो मौजूद तो हो पर “पदार्थ” न हो। आखिर वह क्या चीज है जिसे हम “पदार्थ” (या मैटर) कहते हैं ? हम सब “स्पेस” में रहते हैं और रोज हमारा वास्ता इस “स्पेस” से पड़ता है, और हम ऐसा दिखाते हैं जैसे कि हम “स्पेस” को बखूबी जानते हों। क्या हम वास्तव में जानते हैं कि “स्पेस” क्या है ? इसी तरह, हमारी विकसित सभ्यता पूरी तरह से “समय” के उपयोग और उसके लेखे-जोखे पर निर्भर है। क्या “समय” वास्तव में कोई चीज है भी – क्या यह मौजूद भी है ? “पदार्थ” , “स्पेस” और “समय” का अस्तित्व सनातन – अजर अमर – है और हम इंसानों की मौजूदगी का उनके अस्तित्व के रहस्य पर कोई असर नहीं पड़ता।
लेकिन अब इंसान ब्रह्माण्ड के इस रहस्यपूर्ण रंग मंच पर आ खड़ा हुआ है ताकि वह इस पर आश्चर्य कर सके और उस रहस्य की गहराइयाँ नाप सके।
तब फिर, क्या इंसान इन त्रिमूर्ति “पदार्थ, स्पेस और समय” की ही पैदावार नहीं है ? तब फिर, क्या इंसान का मायना – अर्थ – यह नहीं है कि यह त्रिमूर्ति अपने आप पर ही आश्चर्य कर रही है और इसके गुप्त रहस्य की गहराइयों को नाप रही है ? ये रहस्य सबसे ऊँचे दर्जे के रहस्य हैं।
हम इंसानों को अपने आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान की तुलना उस सबसे करनी चाहिए जो हमे अभी भी जानना बाकी है और अपने उस अहंकारपूर्ण रवैये के औचित्य पर हमें अपने से सवाल करना चाहिए जो महात्मा बुद्ध, जीसस क्राइस्ट , बाबा फरीद , गुरु नानक , विवेकानंद, श्री अरविन्द आदि के द्वारा कहे गए सत्य पर सवाल उठाता हो। इंसान अभी भी उस दूधमुहे बच्चे की तरह ही है जो अपने आस पास की दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा होता है।
विनम्रता के अलावा, इंसान को इस बात की भी जरुरत है कि वह धैर्य – सब्र – रखे। “पदार्थ” , “स्पेस” और “समय” के पीछे छुपे रहस्य को उजागर करना विज्ञान का काम है और इंसान की बुद्धि, जो इस वैज्ञानिक ढूंढ का पावरहाउस – ऊर्जा स्त्रोत – है, इस काम को आश्चर्य जनक ढंग से कर रही है। हालाँकि मनुष्य की बुद्धि – इसकी चीजों को समझने के लिए विश्लेषण की पद्धति अपनाने के कारण – इस बात की कम ही क्षमता रखती है कि वह इस विश्व के सत्य के सम्पूर्ण आयाम को समझ सके , फिर भी इस बुद्धि की ढूंढ ही हम इंसानों को बुद्धि की अपनी अन्तर्निहित सीमाओं का अहसास कराती है और हमें इस बात के लिए तैयार करती है कि हम बुद्धि से परे जा सकें।
विज्ञान न केवल इस विश्व के पीछे छुपे सत्य को एक एक कदम करके उद्घाटित कर रहा है बल्कि धीरे धीरे मनुष्य की बुद्धि को भी इस बात के लिए भी तैयार कर रहा है कि वह स्वीकार कर ले कि ऐसे भी सत्य हैं जोकि मानव की चेतना की क्षमता के बाहर हैं और यह स्वीकार कर ले कि इस विश्व के रहस्य को जानने के बुद्धि के अलावा और बुद्धि से बेहतर दूसरे मार्ग भी हो सकते हैं। हमारी कठिनाई यह है कि यह विश्व और यहाँ की चीजें केवल अपनी बनावट में ही जटिल नहीं हैं बल्कि आयामों में भी बहुत विशाल हैं।