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एक कहानी –प्रजातंत्र में एक आदमी की

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राम तिवारी

बचपन में एक कहानी सुनी थी, जो आज भी बहुत प्रचलित है। बाद में जब दुनिया की सारी भाषाओँ की लोक कथाएं पढ़ने की कोशिश की तो आश्चर्य हुआ कि यही कहानी रुसी भाषा में मिली,अरबी में मिली,करीब-करीब-दुनिया की सभी भाषाओँ में मिली,बस कुछ पात्र बदले हुए मिले।

एक तोता और एक मैना का जोड़ा था। एक बार भयानक सूखा पड़ा। लोग अनाज के दाने-दाने को तड़पने लगे। तोता-मैना उड़ते-उड़ते जा पहुँचे किसी दूर देश में जहाँ उन्हें एक चने का दाना मिला! उस चने के दाने को उन्होंने अपनी चोंचों से एक खूँटे से रगड़कर दो भागों में तोड़ने की कोशिश की। दाना टूट तो गया, लेकिन दो दालों में से एक दाल उसी खूँटे में फँस गई। मैना चालाक थी और बची हुई दाल को लेकर उड़ गयी। अब तोते के हिस्से की दाल बची और वह भी खूँटे के अन्दर। तोता बढ़ई के पास गया और बोला-
“बढ़ई-बढ़ई खूँटा चीरो,
खूँटे में दाल बा,
का खाई का पीई, का ले परदेस जाई?”

बढ़ई ने मना कर दिया, “हट तोता, मेरे पास इतना समय नहीं कि खूँटा चीरूँ तुम्हारे छोटे से काम के लिए।” तोता राजा के पास गया और बोला-
“राजा-राजा बढ़ई मारो,
बढ़ई न खूँटा चीरे,
खूँटे में ………………”

राजा ने भी मना कर दिया। तोता रानी के पास गया और बोला-
“रानी-रानी राजा छोड़ो,
राजा न बढ़ई मारे,
बढ़ई ………………..”

रानी ने भी मना कर दिया। तोता साँप के पास गया-
“साँप-साँप रानी डँसो,
रानी न राजा छोड़े,
राजा न बढ़ई मारे,
बढ़ई ……………….”

साँप ने भी मना कर दिया। तोता लाठी के पास गया।
“लाठी-लाठी साँप मारो,
साँप न रानी डँसे ……………..”

लाठी ने भी मना कर दिया। तोता आग के पास गया-
“आग-आग लाठी जारो, ………………………….”

आग ने भी मना कर दिया। तोता नदी के पास गया। (यहाँ नदी के स्थान पर कहीं-कहीं समुद्र का जिक्र मिलता है।)
“नदी-नदी आग बुझाओ, ………………………”

नदी ने भी मना कर दिया। तोता हाथी के पास गया-
“हाथी-हाथी नदी सोखो,  ……………………….”

हाथी ने भी मना कर दिया। तोता रोते हुए जा रहा था। उसका विलाप एक चींटी ने सुना। उसने कहा कि चलो मैं तुम्हारी समस्या का समाधान करने की कोशिश करती हूँ। वह सीधे हाथी की सूँड़ के अन्दर घुस गयी और काटने लगी।

हाथी परेशान हो गया और बोला-
“हमें काटो-वाटो मत कोई, हम नदी सोखब लोई”

और वह नदी सोखने नदी के पास जा पहुँचा। नदी बोली-
“हमें सोखो-वोखो मत कोई, हम तो आग बुझाइब लोई”

और इस तरह धीरे-धीरे क्रम आगे बढ़ई तक पहुँच जाता है। बढ़ई राजा से कहता है-
“हमें मारो-वारो मत कोई, हम खूँटा चीरब लोई”

और आखिर में कहानी के दो रूप मिलते हैं-

एक में खूँटा कहता है- “हमें चीरो-ऊरो मत कोई, हम दाल देब लोई।”

और दूसरे में बढ़ई खूँटा हल्का सा चीर देता है और तोते को दाल मिल जाती है।

बचपन में सुनी इस कहानी को उस समय सुनने में मज़ा तो बहुत आया, किन्तु इसके शाब्दिक अर्थ से अलग हटकर अिधक समझ में कुछ नहीं आया। लेकिन आज जितना ही सोचता हूँ, इस कहानी को सामाजिक दर्शन के एक शक्तिशाली आयाम को निरूपित करता हुआ पाता हूँ। कभी-कभी तो लगता है कि पूरी सामाजिक और प्रशासनिक प्रक्रिया को जैसे यह कहानी निचोड़ कर हमारे सामने लाकर रख देती है। इन सघन क्रियाओं का जितना सहज निरूपण यह कहानी कर देती है वह शायद कहीं और देखने को नहीं मिलता है।

सबसे अहम भूमिका इस कहानी में चींटी की है। चींटी की विचार-प्रक्रियाओं पर जरा हम विचार करें। आत्म बलिदान तक हो जाने, आत्मोत्सर्ग तक की शक्ति ज़रूर उस चींटी में थी। यदि हाथी ने चींटी को मसल दिया होता तो? यह ख्‍़ातरा तो चींटी ने उठाया ही था और ऐसी ही चींटियाँ, व्यवस्था की सोच की धारा को बदल सकती हैं।

फिर यह चींटी है कौन? यदि हम समाज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो वह और कोई नहीं समाज का एक आम आदमी है और हाथी है व्यवस्था। एक अदना सा आम आदमी भी बहुत हद तक बदल सकता है व्यवस्था को। वही बस उठ जाये तो सारी व्यवस्था की सोच में परिवर्तन हो जाता है। लेकिन वह उठेगा हाथी के पास जाने के लिए, हाथी की सोच में परिवर्तन लाने के लिए, तो दब जाने की आशंका तो बनी ही रहेगी और उस आशंका से उठकर जब वह हिम्मत करेगा, तभी वह हाथी की सूँड़ में जाकर हाथी की सोच की दिशा बदल देने की स्थिति में आ पायेगा।

खूँटा, बढ़ई, राजा, रानी, आग, लाठी, नदी और हाथी; ये सभी व्यवस्था के विविध आयाम हैं। विविध फलक हैं। इन सबकी सोच में परिवर्तन हो सकता है, एक छोटी-सी चींटी की उमंग से कि चलो मैं एक सही काम के लिए, व्यवस्था से जूझने के लिए तैयार हूँ, आत्मोत्सर्ग के लिए तैयार हूँ।

यहाँ पर दो बातें और महत्त्वपूर्ण हैं। बढ़ई को केवल खूँटे को जरा सा चीर कर दाना निकाल देना था। राजा को भी बढ़ई को केवल डाँटकर काम करा देना था। किसी को जान का खतरा नहीं था। लेकिन किसी को तोते के प्रति जरा भी संवेदना नहीं हुई। लेकिन चींटी को इतनी संवेदना हुई कि वह जान की बाजी लगाकर हाथी के पास पहुँची। तो व्यवस्था परिवर्तन की इच्छा के लिए तीव्र संवेदना का होना आवश्यक है।

दूसरी बात यह कि चाहे बढ़ई हो, राजा हो, लाठी हो या साँप हो, हर एक के पास तोता गिड़गिड़ाते हुए गया लेकिन किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। चींटी ने स्वयं ही तोते का दुःख देख उसके रोने का कारण, दुःखी होने का कारण पूछा। यह होती है सच्ची संवेदना। यदि कोई किसी से अपनी ज़रूरत बताये और गिडगिड़ाये और तब वह निराकरण की चेष्टा करे तो वह सच्ची संवेदना नहीं कही जा सकती। सच्ची संवेदना तो यह है कि जब कोई अपनी तरफ़ से दूसरों के दुःख को जानने की कोशिश करे और उसके निराकरण में जुट जाये जैसा कि चींटी ने किया।

यहाँ एक प्रश्न और भी उठता है। यह तो सच है कि बढ़ई संवेदनहीन था। लेकिन क्या राजा, रानी, साँप, नदी, लाठी, आग भी केवल संवेदनहीन थे? या उन सबमें निहित स्वार्थवश एक गठजोड़ भी था, जिसकी वजह से न तो वे एक-दूसरे की शिकायत सुनने को तैयार थे और न ही सज़ा देने को। इसकी प्रबल सम्भावना है कि निहित स्वार्थवश उनमें एक गठजोड़ रहा हो और वह केवल भयवश ही अंत में टूट सका।

वैसे इस कहानी में व्यवस्था का एक अच्छा फलक भी देखने को मिलता है। तोते को अपनी बात बेबाक़ कहने के लिए, बढ़ई, राजा, रानी, साँप, लाठी, आग, नदी, हाथी तक पहुँचने को तो मिल गया। वह बेरोक-टोक उनके पास पहुँच तो सका। आज का माहौल शायद और बिगड़ गया है। आज एक छोटा आदमी व्यवस्था के उच्च शिखरों तक पहुँच ही नहीं सकता, इसलिए और भी यह कहानी प्रासंगिक हो जाती है। अब तोते की सारी आशाएँ मात्र चींटी से ही रह जाती हैं।

अब आते हैं इस कहानी के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू पर।

तोते के चींटी से मिलने और चींटी के पास जाने तक जो व्यवस्था थी वह अक्रियाशील थी, असंवेदनशील थी। जब चींटी उठी तो पूरी व्यवस्था क्रियाशील हो उठी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था में जो अंग हैं, वे वही हैं। वही बढ़ई है, वही राजा है, वही नदी है, वही लाठी है, वहीं साँप है, वही हाथी है। सब कोई अक्रियाशील थे और थोड़े ही अन्तराल में सब कोई क्रियाशील हो गये, एक चींटी के कमर कस लेने से। किसी को कोई अत्यिधक भागदौड़ भी नहीं करनी पड़ी। बस थोड़ा-सा भय और थोड़ा-सा अपने कर्तव्य का आभास और एहसास हो गया तो पूरी कार्यपद्धति में क्रियाशीलता आ गयी।

तो यही व्यवस्था और इसी व्यवस्था के लोग अच्छा काम कर सकते हैं। यही राजनीतिज्ञ, अिधकारी, नौकरशाह, प्रबन्धक, अध्यापक, व्यापारी, वकील, डॉक्टर सभी ठीक से काम कर सकते हैं। बस आम आदमी को चींटी बनना होगा।

चींटी भी एक सांकेतिक बिम्ब है। चींटी निरूपित करती है सीढ़ी में जो सबसे नीचे और छोटा-सा बिन्दु है उसे।

यदि व्यक्ति भौतिक और सामाजिक रूप से चींटी का स्वरूप नहीं ले सकता तो कम से कम अपने ‘इगो’ को, अहंकार को तो चींटी स्वरूप बना ही सकता है। तब भी वह बहुत कुछ कर सकने में सक्षम हो जायेगा। चींटी के बराबर हमारा अस्तित्व हो, या कम से कम चींटी के बराबर हमारा अहंकार हो और हममें हौसला हो तथा त्यागमय कर्म हो तो हम हाथी को भी सकारात्मक और सम्यक् रूप से क्रियाशील कर सकते हैं। पूरी व्यवस्था को बाध्य कर सकते हैं कि वह अपनी सोच की दिशा में समुचित परिवर्तन करे। व्यवस्था को संवेदनशील भी बना सकते हैं और क्रियाशील भी।

इस कहानी में ग़ौर करिए सबसे शक्तिशाली कौन है? उत्तर चींटी मिलता है। और चींटी सबसे शक्तिशाली है संवेदना के गुण के कारण ! धनबल , बाहुबल , संसाधन बल या ज्ञान बल में राजा रानी साँप आग पानी हाथी चींटी से कहीं आगे थे लेकिन संवेदना का बल न होने के कारण किसी ने कुछ नहीं किया । संवेदना ही मुख्य आंतरिक ताक़त है जो कार्य करने को विवश करती है । इसलिए शिक्षा और ट्रेनिंग के दौरान संवेदना का विकास सबसे ज़रूरी है ।

भारतीय संविधान संवेदना का एक महत्वपूर्ण श्रोत है,उसे जानने से चींटियों को , आम जनता को अपनी ताक़त का अहसास भी होने लगता है और देश के लोगों और प्रकृति से जुड़ाव व संवेदना पैदा होने लगती है ।

दो बातें और , अब हम सबको अपनी बाक़ी सारी प्रतबद्धताओं से ऊपर उठकर देश और मानवता के आधार पर सोचना होगा । दूसरे , इस अवधारणा को मन से निकालना होगा कि समय , ज़माना या युग ख़राब है ।

मेरी एक पुरानी कविता है –
‘वह भी ज़माने को बुरा कहने लगा है
लगता है
वह भी बुरे माहौल में रहने लगा है ‘

अगर आप अच्छे हैं, हम अच्छे हैं और ईश्वर वही है तो ज़माना बुरा कैसे हो सकता है ?

समग्रता में देखने पर तो सभी समय ईश्वरीय ही लगेगा । हमारा संविधान हममें यह विश्वास भरता है कि वर्तमान और भविष्य समय बहुत अच्छा है ।

यदि कहीं कोई कमी दिखती है उसे तो दूर करने की कोशिश भी हम सब को ही करनी है उसी चींटी की तरह ।
और अंत में:

कितना दर्द सहा होगा आजादी के मतवालों ने ;
जिन्होंने भारत मां की खातिर होम दिया अपने जीवन को , लेकिन फिर भी मरते मरते लब पर वंदे मातरम आता था।

ऐसे मां के वीर सपूत भगत सिंह राजगुरु सुखदेव चंद्र शेखर आज़ाद सुभाष चंद्र बोसे मास्टर सूर्य सेन और हज़ारों क्रन्तिकारी भारत माँ के सपूतों को नमन कोटि कोटि प्रणाम करते हुए – आओ हम यह व्रत लें कि हम भारत के निवासियों की तरक्की सुख और उज्वल भविष्य के लिए हम जो हम से बन पड़े वो करें। आज जब भारत उठ रहा है और आगे बढ़ रहा है हम अपनी मेहनत , संवेदना और कार्य से देश को उनके सपनों को पूरा करें !

२ / २:

अच्छे दिन कब आयेगें?

दिवार पर पेशाब करता व्यक्ति पूछता है , अच्छे दिन कब आयेंगे ?

बिजली चोरी करता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे?

यहाँ-वहाँ कचरा फैंकता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे?

कामचोर सरकारी कर्मचारी पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे?

टेक्स चोरी करता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे?

देश से गद्दारी करता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे?

नोकरी पर देरी से व जल्दी घर दौड़ता कर्मचारी पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे?

​लड़कियों से छेड़खानी करता व्यक्ति पूछता है, अच्छे दिन कब आयेंगे​

राष्ट्रगान के समय बातें करते स्कूलों के कुछ लोग पूछते है, अच्छे दिन कब आयेंगे?

स्कूल में बच्चों को न भेजने वाले लोग पूछते हैं, अच्छे दिन कब आयेंगे?

कसाई जैसे कमीशनखोर डाक्टर पूछता है अच्छे दिन कब आयेंगे?

सड़क पर रेड सिगनल तोड़ते लोग पूछते, अच्छे दिन कब आयेंगे?

किताबों से दूर भागते विद्यार्थी पूछते हैं, अच्छे दिन कब आयेंगे?

कारखानों में हराम खोरी करते लोग पूछते हैं, अच्छे दिन कब आयेंगे?

यदि खुद नहीं बदल सकते तो अच्छे दिनों की आस छोड़ दो।
क्योंकि देश आपके उपदेश से नहीं, आचरण से बदलेगा, तब आएंगे अच्छे दिन !

कांग्रेस देश पर 55 लाख 87 हजार 149 करोड़ का कर्ज छोड़ के गई है !
जिसका 1 वर्ष का ब्याज भरना पड़ रहा है = 4 लाख 27 हजार करोड़ !

यानि 1 महीने का = 35 हजार 584 करोड़ !
यानि 1 दिन का = 1 हज़ार 186 करोड़ !
यानि 1 घंटे का = 49 करोड़ !
यानि 1 मिनट का 81 लाख !
यानि 1 सेकेंड का 1,35,000!

जरा सोचिए ! जब देश लूटेरी कांग्रेस की मेहरबानी से
प्रति सेकेंड 1 लाख 35 हजार रूपये का तो सिर्फ पुराने कर्जे का ब्याज भर रहा है तो देश के अच्छे दिन आसानी से कैसे आएंगे..???

अत: जितना सम्भव हो भारतीय प्रोडक्ट ही ख़रीदे, देश को लूटने से बचाये, अर्थव्यस्था की मजबूती में अपना अमूल्य योगदान देकर भारतवर्ष को फिर से समृद्ध बनाये…!

यदि भारत के 121 करोड़ लोगों में से सिर्फ 10% लोग प्रतिदिन 10 रुपये का रस पियें तो महीने भर में होता है लगभग ” 3600 करोड़ “…!!!!

अगर आप…कोका कोला या पेप्सी पीते हैं तो ये ” 3600 करोड़ ” रुपये देश के बाहर चले जायेँगे…। कोका कोला, पेप्सी जैसी कंपनियाँ प्रतिदिन ” 7000 करोड़ ” से ज्यादा लूट लेती हैं..।

आपसे अनुरोध है क आप… गन्ने का जूस/ नारियल पानी/ आम/ फलों के रस आदि को अपनायें और देश का ” 7000 करोड़ ” रूपये बचाकर हमारे किसानों को दें…। ” किसान आत्महत्या नहीं करेंगे..”

फलों के रस के धंधे से  ” 1 करोड़ ” लोगो को रोजगार मिलेगा और 10 रूपये के रस का गिलास 5 रूपये में ही मिलेगा…।

स्वदेशी अपनाओ,  राष्ट्र को शक्तिशाली बनाओ..। स्वदेशी अपनाए देश बचाएे अगर सभी भारतीय 90
दिन तक कोई भी विदेशी सामान नहीं ख़रीदे… तो भारत दुनिया का दूसरा सबसे अमीर देश बन सकता है.. सिर्फ 90 दिन में ही भारत के 2 रुपये 1 डॉलर के बराबर हो जायेंगे.. हम सबको मिल कर ये कोशिश आजमानी चाहिए क्युकी ये देश है हमारा..!!!!


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