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हिन्दू धर्म की संपूर्ण जानकारी

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(“What is Hinduism / Sanatan Dharma” का हिन्दी संस्करण)

हिन्दू धर्म या सनातन धर्म?

आज कल “सनातन धर्म” के लिये “हिन्दू धर्म” शब्द ही प्रचलित है। लेकिन इसके लिये उपयुक्त शब्द सनातन धर्म ही है। अधिक प्रचलित होने के कारण हम यहां सनातन धर्म के स्थान पर हिन्दू धर्म शब्द का ही प्रयोग कर रहे हैं और उसे सही अर्थ मे ही समझा जाना चाहिये।

हिन्दू धर्म क्या है? हिन्दू धर्म क्या है, इस बारे मे आम लोगो के मध्य बहुत बडे भ्रम की स्तिथी है। यह भ्रम उन लोगो मे ही नही है जो विदेशी हैं और हिन्दू धर्म जानने की उत्सुक्ता रखते हैं बल्कि उन लोगो मे भी है जो भारतीय हैं और जन्म से हिन्दू हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि ज्यादातर हिन्दू, चाहे वे भारत मे रहते हैं या भारत से बाहर रहते हैं, हिन्दू धर्म के बारे मे अनभिज्ञ हैं। यह भ्रम अभी हाल मे प्रचलन मे आये एक नये शब्द – हिन्दुत्व – के बाद और भी बढ गया है।

संक्षिप्त, सम्पूर्ण और बुद्धिगम्य जानकारी का अभाव:

हिन्दू धर्म के बारे मे जानकारी देने वाला साहित्य – प्राचीन और आधुनिक दोनो ही – बहुत अधिक मात्रा मे उपलब्ध है लेकिन यह इतना बडा है कि हम इस सब को नही पढ सकते और इसकी विषय-वस्तु इतनी अधिक गम्भीर है कि इसका सार समझना हमारे लिये बहुत कठिन है। इस दुहरी कठिनाई के कारण ही आम लोग इसको नही समझ पाते और इसका लाभ उठा कर अब्राहम वाले – ईस्लाम और इसाई – धर्म के लोग काफी समय से हिन्दू धर्म को बदनाम करने और इसको अन्धविश्वास और अज्ञान कह कर हिन्दुओ का धर्म परिवर्तित करके अपने धर्म मे लाने के काम मे लगे हुए हैं।

हिन्दू धर्म के एक ऐसे सार-संग्रह की बहुत बडी कमी रही है जो इसके हर एक उस पहलू को जो इसका अभिन्न अंग है हमें संक्षिप्त और समझ मे आने वाले तरीके से बताता हो और उसका कोई भी भाग छोडता न हो। हिन्दू धर्म मनुष्य के मस्तिष्क के लिये तार्किक है; यह मानवीय जिज्ञासा और खोज करने की उत्कंठा के मामले मे बहुत गहरा है; यह रहस्यों को मानवीय मस्तिष्क कै लिये सुलझाता है; यह अति-इंद्रीय घटनाओ का स्पस्टिकरण करता है; और, यह समझ मे आने वाला है। संक्षेप में, हिन्दू धर्म मानव-जन के लिये एक शिक्षा और मार्ग-दर्शक है और यह मनुष्यों के सभी सन्ताप और दुखों मे शांति प्रदान करने वाला मरहम है। आओ हम जाने कि हिन्दू धर्म क्या है। यहां दिया गया विवरण कुछ विस्तृत अवश्य है लेकिन इसको कम करने के लिये विषय वस्तु को अधिकतम संक्षिप्त कर दिया गया है।

श्रुति:
हिन्दू धर्म का आधार श्रुति है, जिसका अर्थ होता है “वह जो सुना गया है” और उस (श्रुति) पर की आधारशिला पर एक भव्य संरचना निर्मित की गई है जिसका नाम “स्मृति” है, जिसका अर्थ होता है “वह जो याद रखा गया है”। “श्रुति” ॠषियों द्वारा सुनी गई दिव्य वाणी थी – या दिव्य वाणी द्वारा उसको यह उन (ॠषियों) को उदघाटित किया था – जिस (वाणी) को लिखा नही गया था बल्कि अपनी स्मृति मे संजोया गया था। उस ज्ञान को बार बार दोहरा कर एक पीढी से दूसरी पीढी को तब तक पंहुचाया गया था, जब उसे बहुत लम्बे समय के बाद अन्त मे लिखा गया।

वेद:
“श्रुति” चार वेदो मे संकलित है; ये वेद हैं: ॠगवेद, यजुरवेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेद का अर्थ है: “वह जो ज्ञात है” – या ज्ञान। हिन्दू धर्म इसी ज्ञान पर आधारित है। प्रत्येक वेद तीन भागो मे विभाजित है: एक: मंत्र – या संहिता संग्रह; दो: ब्राह्मण; और, तीन: उपनिषद।

मंत्र, ब्राहम्ण और उपनिषद:
मंत्र संस्कृत भाषा मे लिखे गये ऐसे वाक्य हैं, जिनमे विशिष्ट ध्वनि उत्पन्न करने की एक व्यवस्था है और जो विशेष प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति रखते है, और जो दिव्य शक्ति की आराधना मे गाए गये हैं। ब्राहम्णो मे वह दिशा-निर्देश हैं जो मंत्रों मे गाई गई उस दिव्य शक्ति की महिमा के लिए विशेष प्रकार के अनुष्ठान पूर्ण करने के विधी-विधान हैं। उपनिषद “ब्रह्मा” (= परम दिव्य शक्ति) की प्रकृति, “आत्मा” (= ब्रह्मा से अलग हुआ व्यक्तिगत दिव्य अंत:स्थल), मनुष्य, ब्रह्मांड, बन्धन और मुक्ति के बारे मे गम्भीर दार्शनिक शिक्षाएं हैं। वे हिन्दू धर्म का दार्शनिक आधार हैं और एक सामान्य आदमी की बुद्धि के समझने के लिये बहुत कठिन है।

यद्पि कुल मिला कर 200 से अधिक उपनिषद हैं लेकिन परंपरागत रूप से उनकी संख्या 108 ही मानी जाती है। उनमे प्रमुख उपनिषद ये हैं: ईशा, केन, कठ, प्रासन्न, मूंडक, मानडूक्य, तैत्तिरिय, ऐतेराय, छन्दोग्य और ब्रिहदारन्यक।

धर्म शास्त्र:
निर्णय करने के अधिकार की दृष्टि से हिन्दू धर्म मे सर्वोच्य स्थान श्रुति का माना जाता है और इसी दृष्टि से श्रुति के बाद स्थान आता है स्मृति या धर्म शास्त्र का। स्मृति या धर्म शास्त्र के चार महान संग्रह हैं, जिनको ॠषियो ने लिखा है और जिनमे व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता को नियंत्रित करने वाले नियम और कानून संग्रहित हैं।

स्मृति की चार संख्या है: 1. मनु स्मृति या मानव धर्म शास्त्र या मनु का विधान; 2. याग्यवलक्य स्मृति; 3. संख लिखित स्मृति; और 4. पाराशर स्मृति। मनु मनुष्यो के कानून का महान परवर्तक होने के कारण, इन चारो मे से पहले वाली स्मृति हिन्दू विधि की मुख्य पुस्तक है।

विस्तृत साहित्य:
जहां श्रुति, स्मृति पुराण और इतिहास हिन्दू धर्म की एक भव्य इमारत का निर्माण करते हैं, वहीं स्वंय धर्म ने विज्ञान और दर्शन के एक महान और विशाल साहित्य को जन्म दिया है।

विज्ञान को “षडांगिनी” – छ अंग, शब्दस: छ भाग – मे विभाजित किया गया था। इन छ अंगो, या विभागो, मे वह सब आता था जिसको आज हम धर्म-निरपेक्ष संसारिक ज्ञान कहते हैं। पुराने जमाने मे थार्मिक ज्ञान और थर्म-निरपेक्ष संसारिक ज्ञान अलग अलग विभाजित नही होते थे।

जहां श्रुति और स्मृति हिन्दू धर्म का आधार हैं वहीं स्वयं धर्म ने एक विशाल साहित्य को जन्म दिया है, जिसमे दर्शन, विज्ञान और इतिहास सम्मिलित हैं। इस सारे साहित्य का केवल एक ही उद्देश्य है। वह उद्देश्य है: “परम दिव्य शक्ति” से अलग हुई मनुष्यो की व्यक्तिगत दिव्य अंत:स्थलि (=आत्मा) को उसी “परम दिव्य” शक्ति से पुन: मिलाना ताकि मानव को सदैव रहने वाले उसके दुखो से मुक्ति मिल सके।

ज्ञान:

इसको प्राप्त करने का साधन क्या है? इसको प्राप्त किया जाता है ज्ञान (ज्ञान = सूचना से उपजा बोध) को विकसित करके। यद्पि सूचना से उपजे इस बोध के लक्ष्य को हासिल करने के लिए उपयोग मे लाए जाने वाले तरीके भिन्न भिन्न हैं, लेकिन वे अलग अलग लोगो की मानसिक रूचि अलग अलग होने के कारण ही भिन्न हैं जो केवल इस एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं: जीवन की दुखो और मृत्यु के सन्ताप से मुक्ति; जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति; और,सच्चिदानंद के परम सुख की प्राप्ति।

इस सम्बंध मे जो बात हमे ध्यान मे रखनी है वह यह है कि मानव जीवन के इस एक लक्ष्य को हमे इस जीवन मे ही और अभी प्राप्त करना है न कि मृत्यु के बाद किसी और तरह के स्वर्ग की दुनिया मे। हिन्दू धर्म इसी दुनिया के हमारे “कर्म” – हमारे आचरण और कार्यों – से ही सम्बंध रखता है और उन कर्मो को ही मनुष्य-जीवन के उद्दात लक्ष्य – परम आनन्द – की अभी, यहां और सदैव के लिए प्राप्ति का एक साधन बनाता है।

दर्शन:
दर्शन – या षडदर्शन – के छ भाग हैं, जिनके नाम हैं: न्याय; वैशेषिका; सांख्य; योग; मिमांसा और वेदान्त। न्याय और वैशेषिका इस जगत की वस्तुओ के प्रकारों को एक निश्चित संख्या मे व्यवस्थित करते हैं और फिर तब यह बताते हैं कि किस तरह मनुष्य अपनी इंद्रिओ की सहायता से उनको जान पाते हैं, यथा: अनुमान और सादृश्य के आधार पर; बुद्धिमान और अनुभवी अन्य लोगो के साक्ष्य के आधार पर; और तब वे समझाते हैं कि किस तरह से ईश्वर ने पदार्थ से यह जगत बनाया है और क्यों सबसे उच्च और उपयोगी ज्ञान ईश्वर का ज्ञान है।

सांख्य “पुरुष” (चेतना) और “प्रकृति” (पदार्थ) के स्वरूप और उनके पारस्परिक सम्बंध को समझाता है। योग यह दर्शाता है कि किस तरह हम पांच संवेदनाएं और उनके समानुपाति पांच इंद्रियां का चीजो को जानने के लिए उपयोग करते हैं और किस तरह से और भी अन्य “सूक्ष्म या गूढ़” संवेदनाएं और इंद्रियां हैं जिनसे उन चीजो को जाना जा सकता है जिनको हम अपनी साधारण इंद्रियों के द्वारा नही जान सकते, और यह भी (दर्शाता है) कि वे लोग जो ईश्वर की खोज मे हैं किस तरह से उन “सूक्ष्म या गूढ” संवेदनाओ और इंद्रिओ को विकसित कर सकते हैं।

मीमांसा यह समझाता है कि “कर्म” क्या है और किस तरह यह “कर्म” हमारे लिए परिणाम लाता है और हमे इस संसार से बांधता है, जिसके कारण हम बार बार जन्म लेने के लिए विवस होते हैं।

अन्त मे वेदान्त दिव्य शक्ति (या ईश्वर) और “जीव आत्मा” ( = ईश्वर का व्यक्तिगत अंश) की वास्तविक प्रकृति को समझाता है, और यह दर्शाता है कि किस प्रकार हर एक जीवित प्राणी का “जीव आत्मा” सार रूप मे एक ही है और उन (प्राणियो) के अन्त:स्थल मे रहने वाला ईश्वर ही है। यह दिखाता है कि मनुष्य किस तरह से अपना जीवन इस प्रकार जी सकते हैं कि उनके “कर्म” उनको न बांध सकें, और किस तरह से “योग” का अभ्यास करने पर वे “दिव्य शक्ति” की “माया शक्ति” को समझ सकते हैं, उस दिव्य शक्ति मे अपने को विलय कर सकते हैं और ईश्वर से ऐकाकार हो सकते हैं (या मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं)।

(शेष भाग के लिये अभी प्रतिक्षा करें)


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