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सेंगोल –धर्मदंड/राजदंड –की भारतीय पार्लियामेन्ट मे स्थापना का ऐतिहासिक महत्व

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हिमांशु चौहान

क्या है नये संसद भवन में स्थापित होने वाला धर्म दण्ड या सन्गौल? यह एक अत्यन्त रोचक तथ्य है कि 14/15 अगस्त 1947 की रात्रि में स्वाधीनता प्राप्ति यानि सत्ता हस्तान्तरण के समय चक्रवर्त्ती राजगोपालाचार्य के सुझाव पर तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने धर्मदंड या राजदण्ड के हस्तान्तरण के पारम्परिक माध्यम से सत्ता ग्रहण की थी। प्रख्यात नृत्यांगना सुश्री पद्मा सुब्रह्मण्यम् द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को लिखे एक पत्र के बाद 5 फिट लम्बे ‘सेंगोल’ नामक इस ऐतिहासिक राजदण्ड की खोज प्रारम्भ हुई। संस्कृति मंत्रालय के सूत्रों ने कहा कि श्रीमती सुब्रह्मण्यम् ने तमिळ-पत्रिका ‘तुगलक’ में एक लेख का हवाला दिया था, जिसमें 1947 में समारोह का विवरण दिया गया था, जब सेंगोल भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंप दिया गया था। लेख मई 2021 में छपा था और प्रसिद्ध नर्तक और शोधकर्ता ने सरकार से उस वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इस जानकारी को सार्वजनिक करने का अनुरोध किया था।

उत्तरी भारत मे कहा जाने वाला यह “धर्मदंड या राजदंड” और दक्षिणी भारत मे कहा जाने वाला “सेंगोल” उत्तरी और दक्षिणी भारत को एक राष्ट्र के रूप पिरोता है। हर किसी को जो सवाल पूछना चाहिए वह यह है 1947 से इसे क्यों छिपाया गया था ? बाद में भी परंपरा का पालन क्यों नहीं किया जाता रहा ? इसे गायब किसने किया ? क्या यह विशेष पंथों को खुश करने के लिए किया गया था ? ऐसी और कितनी बातें छिपी हैं ? और क्यों छिपी हैं ?

सेंगोल को एक पवित्र हिंदू समारोह में नेहरू को सौंपा गया था। सेंगोल पर स्वयं तमिल भाषा में यह कविता है: “यह हमारा आदेश है कि भगवान (शिव) के अनुयायी, राजा, स्वर्ग में शासन करेंगे।” इस प्रकार 15 अगस्त 1947 को सत्ता एक हिंदू ‘राजा’ को स्थानांतरित की गई थी, जिसे एक जैसा शासन करने का आदेश दिया गया था। तमिल में यह कविता अब भारत मे सनातन सभ्यता के रूप में वापस आ रही है। यह सनातन सभ्यता की भारत मे पुनर्स्थापना नहीं तो और क्या है ?

इससे यह भी समझ मे आ जाता है कि क्यो भारत मे इस्लाम समर्थक राजनैतिक पार्टियां नई पार्लियामेंट के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार कर रही हैं ।

“सेंगोल” क्या है? महान चोल राजाओं के समय सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक, जिसके शीर्ष पर विराजमान हैं महाराज “नन्दी” (नन्दी अर्थात् बैल को शास्त्रों में धर्म का स्वरूप माना गया है) सेंगोल को भगवान शिव के आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है और अब यही सेंगोल भारत की नई संसद में स्थापित होने जा रहा है। सत्ता के हस्तांतरण के इस प्रतीक सेंगोल (राजदंड) को वैदिक मंत्रोच्चार के साथ संसद भवन में स्पीकर की कुर्सी के दायीं ओर रखा जाएगा ।

14 अगस्त 1947 सरकार को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में ‘सेंगोल’ को पंडित नेहरु को भेंट किया गया था। अंग्रेजों के बनाये गए संसद भवन से आत्मनिर्भर भारत के अपने संसद भवन में प्रवेश यकीनन हर भारतीय को गर्व से भर देने वाला होगा । ये संसद आज भी है और सालों बाद जब हममें से कोई नहीं होगा तो उस आने वाली पीढ़ी के भारतीयों को भी ये हमेशा गर्व करने का मौक़ा देगा कि ये “आज़ाद भारत में बना हुआ अमृतकाल का हमारा संसद भवन है”।

अध्ययन और शोध के दौरान राजाजी ने तमिलनाडु के चोल साम्राज्य में सत्ता के हस्तांतरण के लिए अपनाई जाने वाली रस्म को इस अवसर के लिए तय किया था। चोल साम्राज्य भारत के प्राचीनतम और लंबे समय तक चलने वाले साम्राज्य में एक था। इस साम्राज्य में एक राजा से दूसरे राजा में सत्ता का हस्तांतरण एक सेंगोल सौंपकर किया जाता था जो कि नीति परायणता का उदाहरण माना जाता था। सेंगोल को सौंपते वक्त भगवान शिव का आह्नान किया जाता था, क्योंकि चोल साम्राज्य शिव का भक्त था।

सी राजगोपालाचारी ने इसी परंपरा का सुझाव नेहरू जी को दिया जिसे पंडित नेहरू ने माना। इस प्रकार एक हजार साल पुरानी परंपरा का पालन करते हुए उत्तर और दक्षिण के असाधारण एकीकरण द्वारा राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोते हुए सत्ता का हस्त्तांतरण किया गया था। इस मौके पर नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद और कई अन्य नेताओं की उपस्थिति में सेंगोल को स्वीकार किया था। सोने का यह राजदंड गहनों से जड़ा हुआ था, उस समय इसकी कीमत ₹15,000 थी और इसे चेन्नई के वुम्मिदी बंगारू चेट्टी एंड संस, जौहरी और हीरा-व्यापारियों द्वारा बनाया गया था।

11 अगस्त 1947 को ” The Hindu” अखबार मे यह खबर छपी थी: MADRAS, Aug. 10: In connection with the Independence Day celebration, His Holiness Sri-la-Sri Ambalavana Pandarasannadhi of Tiruvaduthurai has arranged to perform special puja to Shiva and to Confer the lord’s blessings on Pandit Jawaharlal Nehru. The puja prasadams and a sceptre made of gold will be presented to Pandit Nehru at his residence in New Delhi at 11 p.m. on August 14. The gold sceptre was made by Vummidi Bangaru Chetti and Sons, Jeweller and Diamond merchants of the City. (हिन्दी अनुवाद: मद्रास, 10 अगस्त : स्वतंत्रता दिवस समारोह के संबंध में, तिरुवदुतुरै के परम पावन श्री-ला-श्री अंबालावना पंडरसन्धि ने शिव की विशेष पूजा करने और पंडित जवाहरलाल नेहरू को भगवान का आशीर्वाद प्रदान करने की व्यवस्था की है। पूजा प्रसादम और सोने से बना एक राजदंड पंडित नेहरू को 14 अगस्त को रात 11 बजे नई दिल्ली में उनके आवास पर भेंट किया जाएगा। सोने का राजदंड शहर के वुम्मिदी बंगारू चेट्टी एंड संस, जौहरी और हीरा-व्यापारियों द्वारा बनाया गया था।)

बाद में, थिरुवदुथुराई अधीनम का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमंडल— श्री ला श्री कुमारस्वामी थम्बिरन; मठ के उप महायाजक, मणिकम ओधुवर; और प्रसिद्ध नागास्वरम संगीतकार टीएन राजरथिनम पिल्लई – राजदंड को सौंपने के लिए दिल्ली गए।

दिनांक 14/15 अगस्त, 1947 की रात को नेहरू द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने और उनके प्रसिद्ध ‘Tryst with Destiny’ भाषण देने से कुछ मिनट पहले सेंगोल समारोह हुआ था जिसमें भारत सरकार ने सत्ता हस्तांतरण के लिए तमिलनाडु के चोल-राजाओं के पवित्र सेंगोल-वेस्टिंग मॉडल का पालन किया था। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन को राजदण्ड दिया गया जिसे लेकर माउण्टबेटन ने कार्यवाही का संचालन किया। राजदंड पर पवित्र जल छिड़का गया, जिसके बाद माउण्टबेटन ने प्रधानमंत्री नेहरू को पवित्र तमिळ-पाठ थेवारम् के गायन के बीच राजदण्ड सौंप दिया। उसके बाद इस राजदण्ड को इलाहाबाद संग्रहालय में स्थानान्तरित कर दिया गया जहाँ इसे अब तक गुमनामी में रखा गया।

तमिळनाडु के वुम्मिदी बंगारू चेट्टी परिवार ने पुष्टि की है कि उन्होंने सेंगोल बनाया था। सूत्रों ने बताया कि हालांकि इसे बनानेवाले परिवार के सबसे बड़े सदस्य की उम्र 95 साल से अधिक है और उन्हें विवरण याद नहीं है, लेकिन घटना की तस्वीर उनके घर पर रखी हुई है।

श्री राजगोपालाचार्य एक राजदंड की व्यवस्था करने के लिए पुराने तंजावुर जिले में तिरुवदुथुराई अधीनम् पहुंचे, जो भारत के सबसे पुराने शैव मठों में से एक है और जिसे 14वीं शताब्दी में स्थापित किया गया था। अधीनम् कावेरी नदी के डेल्टा क्षेत्र में स्थित है, जो तत्कालीन चोल साम्राज्य की हृदय भूमि थी। श्रीला श्री अंबालावना देसिका स्वामीगल उस समय थिरुवदुथुराई अधीनम के द्रष्टा थे। उन्होने शीर्ष पर स्थित दिव्य बैल नंदी की एक लघु प्रतिकृति के अनुसार एक 5 फुट लंबा जटिल नक्काशीदार सोने का राजदंड बनाने का काम वुम्मीडी के शिल्पकारों को सौंपा। उन्होंने दिए गए दिशा-निर्देशों के अनुसार इसे आकार दिया।

“राजदण्ड” के ऊपर विराजित है वृषभ, वृषभ माने “धर्म”! वृषभ धर्म-प्रतीक और पृथ्वी गौ के रूप में श्रीमद्भागवत स्कन्ध 1 अध्याय 16 में वर्णित है। एक मान्यता के अनुसार धर्म के चार पाँव हैं – सत्य, तप, पवित्रता और दया। ‘धर्म-दण्ड’ को तमिल भाषा में सेंगोल कहते हैं। तमिल शब्द सेंगोल का अर्थ ही है “धर्म दंड” और इसके शब्द भी तमिल में ही अंकित है। यह चोल राजवंश में प्रचलित रहा है। यह राजवंश भारत के सुदीर्घ काल तक चलने वाले प्रमुख राजवंशों में से एक है लेकिन यह धर्म-दण्ड उससे भी बहुत पहले से वर्णित रहा है। राजदण्ड का यह स्वरूप सम्भवतः चोल शासकों के समय से चला आ रहा है। “शिव का अनुयायी राजा स्वर्ग जैसा शासन करे” के पवित्र भाव के साथ सम्राट इस पवित्र सेंगोल को धारण करते थे। इसमें एक बड़े दण्ड के ऊपर नन्दी महाराज की आकृति होती है, मानो वे शासक पर दृष्टि रख रहे हों और शासक में भगवान शिव का अंश होने की सनातन मान्यता को चरितार्थ कर रहे हों। फिर बिना नन्दी महाराज के कोई काम कैसे सफल हो सकता है ? दण्ड पर नन्दी महाराज का आसीन होना वस्तुतः राज्य पर धर्म का आसीन होना है ।

दक्षिण भारत का एक महान शक्तिशाली “चोल साम्राज्य” था जिसने ईसा पूर्व तीन सौ से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक, अर्थात पंद्रह सौ वर्षो तक, भारत, श्री लंका, बांग्लादेश, बर्मा, थाईलैंड, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, वियतनाम, सिंगापुर मालदीव तक के बहुत बड़े भूभाग पर राज किया था। महान ऐतिहासिक नगर तंजौर और चोलापुरम इनकी राजधानियां रही। इनके बनाए मंदिर भारत, कंबोडिया, इंडोनेशिया, थाइलैंड, बर्मा आदि देशों में शान से आज भी खड़े हैं।

आखिर कांग्रेस ने ये इतिहास क्यों छुपाया ? ऐसे हजारों ऐतिहासिक तथ्य भारत की जनता से छुपाये गये ताकि भारतीयों के अंदर हीन भावना बनी रहे । नेहरू ने यही बताने की कोशिश की कि अंग्रेज ना आते तो भारत को ना सत्ता का अनुभव था, ना खान-पान का, ना ही विज्ञान का और सब भारतीय अज्ञानी और अन्ध विश्वासी थे।

स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्षों बाद अब यह तय हुआ है कि भारतीय संसद में यह ‘सेंगोल राजदण्ड’ स्थापित होगा। प्रधानमंत्री नए संसद भवन के उद्घाटन के दिन तमिलनाडु के एक मठ के संत से इसे प्राप्त करेंगे और लोकसभा अध्यक्ष के आसन के निकट इसे स्थापित किया जाएगा। भारतीय लोकतंत्र अपनी पचहत्तर वर्षों की यात्रा में यदि कहीं विफल रहा है तो दण्ड का भय स्थापित करने में विफल रहा है। सत्य यही है कि किसी को भी राजदण्ड का भय नहीं है। स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता में कोई अंतर नहीं रह गया है। ऐसे में सांकेतिक तौर पर ही सही, राजदण्ड की स्थापना एक सुखद संकेत तो है ही।

दण्ड का भय केवल प्रजा के लिए ही आवश्यक नहीं है, यह भय सत्ता को भी रहना चाहिये। प्राचीन दंडनीति के अनुसार नैतिकता और विधि का पालन सर्वोपरि होता है, जो दण्डित और दण्डधारी दोनों पर समान रूप से लागू होता है। सत्ता के प्रमुख केंद्र पर धर्म का अंकुश होना ही चाहिये, अन्यथा वह अधर्मी हो जाएगी। यही कारण है कि बनाने वालों ने दण्ड के ऊपर नन्दी की मूर्ति लगाई होगी। धर्म सबसे ऊपर है। सेंगोल राजदण्ड नहीं, वस्तुतः धर्मदण्ड है ।

सेंगोल का अर्थ होता है धर्म, सत्य और निष्ठा! इस समय राष्ट्र की सत्ता को इन तीनों मूल्यों की कितनी अधिक आवश्यकता है, यह समझना मुश्किल नही है। शायद इसी लिए संसद में इस शक्ति के प्रतीक दण्ड का स्थापित होना अत्यंत शुभ है।

इसे स्वतंत्रता के समय सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में माउंटबेटन द्वारा पण्डित नेहरू को दिए जाने की स्मृति में स्थापित करने की बात हो रही है। तब पीताम्बर पहने नेहरू ने भी दक्षिण के किसी संत के हाथों इसे प्राप्त किया था। इसके बाद तब इसे प्रयागराज के किसी संग्रहालय में रख दिया गया था। अब इसे इसके उचित स्थान पर लाया जा रहा है।

नया संसद भवन जब से बनाना शुरू हुआ है तभी से चर्चा में रहा है। अब जब भवन उद्घघाटन के लिए तैयार है, तब से विपक्ष ने एक नया विवाद शुरू कर दिया है। मेरी रुचि विवाद में नहीं है, मेरी रुचि उस सत्ता के हस्तांतरण के समय दिया जाने वाला प्रतीक “सेंगोल” से है! सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया का प्रतीक है रह सेंगोल।

सेलोंग” वो ‘प्रतीक’ है, जो सत्ता हस्तांतरण के समय राज्य के नए उत्तराधिकारी को दिया जाता था। ये एक धर्म दंड है।

अंग्रेजो ने जब भारत पर कब्जा किया, तब सारी संपत्ति अंग्रेजों की हो गई, और ये दंड भी! आजादी के समय अंग्रेजों ने जाते समय ये दंड सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में नेहरू जी को सौंपा, जो आज तक प्रयाग के म्यूजियम में रखा था। अब यह ऐतिहासिक दंड जिसके शीर्ष पर “नंदी” विराजमान हैं, और अन्य भारतीय हिंदू संस्कृति के चिन्ह अंकित हैं, उसे नए संसद भवन में रखा जायेगा।

बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब के बारे में इतिहास की किताबों में हम सब ने बहुत कुछ पढ़ा है, पर “सेलोंग” क्या है, इससे हमको अनभिज्ञ रखा गया है। सेंगोल के पीछे मची हाय-तौबा के पीछे असल कारण दोंनों पक्षों में से कोई नहीं बोल रहा है। वह कारण क्या है?

दरअसल सेंगोल के पीछे यह तमिल मान्यता है कि सेंगोल जिसके पास होगा उसकी सत्ता कभी नष्ट नहीं होगी। नेहरू ने, जो तथाकथित वैज्ञानिक मान्यताओं के बड़े पुजारी थे, इस मान्यता को गंभीरता से लेते हुए अपने म्यूजियम में रखवाकर नेहरू खानदान की सत्ता की सदैव के लिए सुरक्षा का इंतजाम कर लिया। वहाँ पर इसे मात्र घूमने फिरने के उपयोग हेतु “वॉकिंग स्टिक” नाम देकर 75 वर्ष तक उपेक्षित एवं गुमनामी में रखवा दिया गया।

यह मान्यता सत्य हो या न हो, लेकिन मोदी कांग्रेस की – विशेषतः नेहरू परिवार की जो कि भारत की सारी बुरी शक्तियों का नाभिस्थल है – की शक्ति को नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध हैं और इसीलिये इस सेंगोल के प्रतीक रूप के द्वारा उन्होंने नेहरू परिवार की मनोवैज्ञानिक एवं घोर शेक्युलर मान्यता पर गहरी चोट की है।

इसके अलावा तमिल परंपरा से संबंधित होने से भावुक तमिल जनता की प्रतिबद्धता भारत राष्ट्र के साथ भी जुड़ेगी क्योंकि उनकी मान्यतानुसार अब सेंगोल संसद भवन में होने के कारण उसकी ऊर्जा भारत राष्ट्र की अखंडता व लोकतंत्र की सत्ता की निरंतरता को पुष्ट करेगी।

नेहरू परिवार के शिकंजे से सेंगोल मान्यता  का निकलना हिंदू राष्ट्रवाद की विजय और नेहरू परिवार के विनाश की ओर का एक और कदम है।

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी 28 मई को नये संसद भवन में लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी के पास सत्ता के इसी ऐतिहासिक प्रतीक को स्थापित करेंगे।

कुछ संकेत बड़े सुखद होते हैं। अपने हर निर्णय को जन जन से जोड़ देने में कुशल प्रधानमंत्री से आशा है कि वे इस “भारत की सत्ता द्वारा धर्मदण्ड” धारण करने के पवित्र भाव को भी जन-जन से जोड़ देंगे। संसार के एकमात्र अति प्राचीन और धार्मिक देश भारत की इस सनातन परम्परा का ज्ञान जगत को अवश्य ही होना चाहिये।



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